भाग
5
‘डी जे वाले बाबू मेरा गाना बाजा दो, डी जे वाले बाबू
मेरा गाना बाजा दो, गाना बाजा दो, गाना
बाजा दो’
अरे
नहीं हमारी कचहरी में कोई डी जे वाले बाबू नहीं होते जो गाना बजाते हों। हाँ, पर हमारे यहाँ डी जे वाले साहब होते हैं। बड़े साहब यानी डिस्ट्रिक्ट जज
(जिला जज)। हम इन्हें शॉर्ट फॉर्म में डीजे कहते हैं। अब गाना कुछ ऐसे गाया जा
सकता है:
‘डी जे वाले साहब मेरा केस लगा दो, डी जे वाले साहब
मेरा केस लगा दो, केस लगा दो, केस लगा
दो’
हाँ
जी, साहब के यहाँ केस लगा है या नहीं, या लिस्ट में ही
पड़ा है, देखना पड़ता है। डी जे आज केस सुनेंगे या नहीं, या बस तारीख दे देंगे क्या पता? डी जे साहब के पेशकार
से बना के रखनी पड़ती है। जैसे शिव जी के कानों में बात पहुँचाने के लिए नंदी के कानों
में अपनी मनोकामना कहनी पड़ती है बस कुछ वैसे ही डीजे तक अपनी मौखिक अर्ज़ी पेशकार के
कानों से हो कर गुज़रती है।
यूं
तो कचहरी बहुत बड़े वर्ग में फैली होती है। पर इतने कोर्ट रूम और उनके कार्यालयों
में से जो सबसे बेहतरीन कमरा होता है वो है हमारे डीजे का। लंबा इतना कि लगे ईरान
से तूरान तक फैला है। बाकी सारे कमरे इतने चुन्ने-मुन्ने होते हैं कि इसकी लंबाई
ऐसी ही लगती है। कमरे में ढेर सारे पंखे लगे होते हैं, पूरे कमरे में हवा चाहिए ना। सबसे अच्छी बात ये है कि इस एक कमरे को शायद
खास डिज़ाइन के साथ बनाया जाता है। बिलकुल ऐसी जगह पर जहां गर्मियों की तपन से ये
बचा रहे। यानी पूरी कचहरी का ये सबसे शीतल कक्ष। चिलचिलाती धूप से जूझ कर इस कमरे
में घुसते ही जन्नत का एहसास होता है।
इस
एक कमरे की अपनी शान होती है। नए-नए वकील बनो तो यहाँ घुसने में ऐसा डर लगता है
जैसे स्कूल में प्रिन्सिपल के कमरे में जाने से लगता है। कमरे में सबसे पीछे दीवार
से लग कर लाइन से कुर्सियाँ और उसके आगे मेज़ रखी होती हैं जिनका प्रयोग केवल पुलिस
अधिकारी करते है। सिपाही खड़े ही रहते हैं। आगे बढ़ने पर कुछ दूरी पे कमरे के ठीक
बीचों बीच 10-15 कुर्सियाँ पड़ी होती हैं, वकीलों
के बैठने के लिए। कमरे के बाएँ भाग में सरकारी वकील की कुर्सी और मेज़ होती है और
दायें भाग में एक लंबा सा कटघरा। जिसमें एक साथ 4-5 अपराधी खड़े हो सकते हैं। कमरे
में सबसे आगे होता है एक ऊंचा सा प्लैटफ़ार्म, जिस पर एक और
भी ऊंचा सा डाइस। उस डाइस की बाएँ तरफ स्टेनो और दायें तरफ पेशकार की कुर्सी, और दोनों के बीच में बड़े जज साहब की ऊंची से कुर्सी। डाइस पर ढेर सारी
फाइलें, पेन स्टैंड, स्टैंड वाली दफ्ती
और बाकी कुछ कोरे कागज़। पीछे की दीवार पर गांधी जी की तस्वीर भी होती है। बाकी कोई
तस्वीर होगी या नहीं, या किस की होगी ये उस समय की राजनीतिक
परिस्थिति पर निर्भर करता है। होने को तो पंडित नेहरू और जिन्ना की भी तस्वीर हो
सकती है। सब कुछ बिलकुल वैसा, जैसा कि हम किसी भी फिल्म में
देखते हैं। पर वो न्याय की देवी की मूर्ति और वो लकड़ी का हथोड़ा यहाँ भी नहीं हैं। हाँ, एक अर्दली भी होता है जिसका काम होता है केस के वादी और परिवादी के नाम
की पुकार लगाना और इस बात का ध्यान रखना कि अनावश्यक भीड़ कमरे के अंदर प्रवेश ना
करे।
पूरी
कचहरी में बस ये ही एक अनुशासित जगह मालूम पड़ती है। जनता के साथ-साथ वकील भी यहाँ
अनुशासित रहते हैं। बेवजह की बातचीत नहीं, किसी
तरह का शोर नहीं, जनता की भीड़ नहीं। डीजे के सामने अधिवक्ता अनावश्यक
बहस भी नहीं करते। जैसे अन्य अदालतों में हो जया करती है। ये फर्क कुछ ओहदे का भी होता
है। वैसे भी यहाँ तक सारे वकील नहीं आते, क्यूंकी कुछ चुनिन्दा
केस ही डीजे कोर्ट तक आते हैं।
कुर्सी
की भी अपनी ताकत, सम्मान और रौब होता है। जितनी
ऊंची कुर्सी उतना ऊंचा रुतबा। पर सेक्सिस्म (sexism) की मार यहाँ
भी पड़ती है। हर अदालत में ऐसा होता है या नहीं मुझे नहीं पता पर मैंने यहाँ देखा है।
डीजे अगर महिला है तो उसकी क्षमता और समझ को
अधिवक्ता कम ही आँकते हैं। उस कुर्सी का सम्मान करना उनकी मजबूरी है अन्यथा वो इसी
प्रयास और आशा में रहते हैं कि कोई पुरुष डीजे आ कर कार्यभार संभाले। जी हाँ, डीजे का स्थानांतरण कुछ हद तक अधिवक्ताओं के हांथ में भी होता है।
सेक्सिस्म
(sexism), रेसिस्म (racism), कास्टिस्म (casteism) ये सब भी कचहरी, अधिवक्ता और अदलतों से दूर नहीं है।
इसके बारे में विस्तार से फिर कभी।
बहुत अच्छा चित्रण किया I
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंभारतीय अदालतों की हक़ीक़त से रूबरू करा रही है यह शृंखला ।
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