भाग 6
सेक्सिस्म (sexism), रेसिस्म (racism) और कास्टिस्म (casteism) ये सब तो भारत की प्रमुख विशेषताएँ हैं। इनके बिना
भारत का अस्तित्व ही क्या है। सारे संसार से तुलना नहीं करुगी क्यूंकी मैं भारत
में रहती हूँ, संसार के किसी अन्य देश में नहीं। ना ही
देश छोड़ने या बदलने का कोई इरादा है। हाँ, तो जैसा मैं कह रही थी कि ये विशेषताएँ
देश के प्रत्येक क्षेत्र में मिल जाती हैं। कोई भी डिपार्टमेंट इससे अछूता शायद ही
हो। मुझे उम्मीद नहीं। तो फिर कचहरी कैसे इस सब से दूर रह सकती है। जी बिलकुल, मेरी कचहरी में भी सब मौजूद है।
सेक्सिस्म या जेंडर इनइक्वालिटी (gender inequality), सरल भाषा में कहूँ तो औरत और मर्द के बीच
की प्रोफेशनल असमानता। यूं तो ये असमानता का कोई एक निश्चित क्षेत्र नहीं है फिर
भी प्रोफेशनल पर खासतौर से ज़ोर इसलिए दे रही हूँ क्यूंकी यहाँ वकालत के संबंध में
बात हो रही है। कमाल की बात है ना कि वैसे तो अक्सर पुरुष ये ताना मारते हैं कि
औरतें बहस में बहुत तेज़ होती हैं और उनसे बहस में जीता नहीं जा सकता। हाँ, जो काफी हद तक ठीक भी है। तो फिर इसी तथ्य के
मद्देनजर अगर औरत वकालत पढ़ के वकील बन जाती है तो इसमें इतनी तकलीफ की बात क्यूँ
है और अचानक ही उसकी तर्क और बहस करने की क्षमता पर प्रश्ञ्चिंह क्यूँ लगा दिया
जाता है।
मुझे नहीं पता कि बड़े शहरों की कचहरी में
भी या उच्च और सर्वोच्च न्यायलाय में भी यही स्थिति है या नहीं। मैं वो जानती हूँ
जो अनुभव मुझे अपने जिले की कचहरी से प्राप्त हुए हैं। यहाँ लगभग 2000 के आस पास
वकील होंगे, हर साल बढ़ भी जाते हैं। ठीक संख्या तो
मुझे नहीं मालूम। पर उसमें से लड़कियों की संख्या इतनी है कि गिन के बताई जा सकती
है, और गिनने के लिए आपकी उँगलियों पे बने 30
निशान ही काफी हैं। शायद वो भी ज़्यादा ही हैं। महिला वकीलों की इतनी कम संख्या
होने के अनेकों कारण है। एक तो अब ये प्रोफेशन सम्माननीय नहीं रह गया, दूसरा उन्नति और बढ़त का कोई स्कोप नहीं, तीसरा पुरुषों के वर्चस्व में अपना स्थान बनाने और
जमने के लिए अद्वितीय शक्ति और सामर्थ्य की अवश्यकता है, और चौथा ये कि कचहरी में काम ही बस इतना होगा कि
सालों-साल में केवल दरखास्त लगाना और तारीख़ लेना ही सीख पाएँगी। पांचवा ये कि
पुलिसवालों, जजों,
अर्दलियों, पेशकारों,
और कार्यालय कर्मचारियों से साथ-गांठ करना सीखने में या तो सफलता नहीं मिलेगी या
फिर जब तक मिलेगी तब तक आधी उम्र बीत गयी होगी। जुगाड़ सीखना, आदर्शों के खिलाफ जाना और मुवक्किल पे फीस के मामले
में रहम ना खाना, ये सब गृहण करने में महिलाओं को थोड़ी
तकलीफ होती है और इसलिए पुरुषों के मुक़ाबले वक़्त भी ज़्यादा लगता है।
2012 में जब मैंने कचहरी जाना शुरू किया
तो सबसे ज़्यादा बुजुर्ग वकीलों की हेय दृष्टि का सामना करना पड़ा। छोटा शहर और जैसा
कि मैंने कहा कि अब वकालत सम्माननीय नहीं रही तो लड़कियों को इस पेशे में बर्दाश्त
करना पुराने लोगों के लिए खास तौर से मुश्किल होता है। ‘लड़ाका हो जाएगी, हर समय बहस करेगी,
कोई शादी नहीं करेगा, ससुराल वाले परेशान रहेंगे’ आदि इत्यादि।
ये सब सोच सामान्य सी बात है। ‘अब इत्ती-इत्ती लड़कियां खड़ी होंगी हमारे सामने बहस
करने के लिए।‘ ये तो वाकई गंभीर समस्या है। अजब बात है कि जब नए और कम उम्र के
लड़के आते हैं वकालत में तो इन्हीं बुज़ुर्गवारों को उनका स्वागत होता है और वो
उन्हें आगे प्रशिक्षित करने के लिए तत्पर रहते हैं। जिन वकीलों के बेटे उनके अपने
प्रॉफ़ेशन में नहीं आते उन्हें एक अच्छे जूनियर की तलाश और अपेक्षा होती है, जो उनका काम सीख के ना सिर्फ उनकी मदद करता रहे बल्कि
उनकी अनुपस्थिति में उनका बस्ता भी संभाले। पर ये जूनियर एक लड़की कभी नहीं हो
सकती। मज़े की बात ये है कि अक्सर लड़के वकीलों से काम सीख कर और तो और उनके
मुवक्किल हड़प कर जल्दी ही अपनी दुकान सजा लेते हैं और चूंकि वकील साहब पहले ही बुजुर्ग
हैं तो वो इसे ना तो रोक पाते हैं ना ही अपनी आवाज़ उठा पाते हैं। माजरा ये होता है
कि फिर खुद से ज़्यादा उसकी दुकान चलवा रहे होते हैं।
ऐसा नहीं कि सारे ही वकील महिलाओं की
वकालत के खिलाफ हैं, कुछ बहुत समर्थन भी करते हैं और सहायता
भी। हेय दृष्टि के साथ-साथ मुझे भी अनेकों का सहयोग और समर्थन मिला। मेरे अपने
सीनियर साहब ने मुझे पर बहुत विश्वास दिखाया और आस पास बैठने वाले बुजुर्ग वकीलों
ने भी मेरे कार्यकाल के दौरान मुझे अपना भरपूर सहयोग दिया। चूंकि मैंने मात्र साढ़े
चार वर्ष का ही समय दिया है अपनी वकालत को। पर अनुभव इतने कमाए हैं कि ता-उम्र के
सबक मिल गए हैं। सबसे ज़्यादा पीड़ा देने वाली बात ये ही रही है कि केवल महिला
अधिवक्ताओं को ही नहीं बल्कि महिला जजों को भी इस जेंडर असमानता का सामना करना
पड़ता है। कोई समक्ष भले ही ना आलोचना करे या उनके ज्ञान के बारे में निर्णय ले पर
उनकी आलोचना अधिवक्ताओं के लिए भरपूर मनोरंजन का साधन बनती है। यहाँ तक कि रौबदार
और रसूकदार वकील भरी अदालत में उन्हें डोमिनेट करने का पूर्ण प्रयास करते हैं, मात्र इसलिए क्यूंकी वो एक महिला हैं। बड़ी साधारण सी
बात है जब भी किसी नए उम्र के जज की
नियुक्ति होती है चाहे वो महिला हो या पुरुष, तो उसे काम और तरीका सीखने समझने में
वक़्त लगता है। तब तक उनका सहयोग पेशकार और अधिवक्तागण भी करते हैं। पर यहाँ भी
फर्क दिखाई देता है। पुरुष जजों की तुलना में महिला जजों को सहयोग से ज़्यादा दबाव
बनाने जैसी परिस्थिति का सामना अधिक करना पड़ता है।
बहुत खूब लिखती रहो I
जवाब देंहटाएंBahut sateek varnan
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
जवाब देंहटाएंजो आपने कहा है, वह सच है और सच के सिवा कुछ भी नहीं है ।
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