भाग 7
इस शृंखला के दूसरे भाग में मैंने शोषण
शब्द का प्रयोग किया था। आज उसी के बारे में बताती हूँ। कचहरी में सिर्फ न्याय ही
नहीं शोषण भी होता है। वो भी किसी एक व्यक्ति विशेष के साथ नहीं लगभग हर उस
व्यक्ति के साथ जो न्यायालय से संबंध रखता है। सबसे नीचे से शुरू करें तो मुवक्किल
और सबसे ऊपर की बात करें तो जज। सही मायने में सभी शोषक भी हैं और शोषित भी। कभी
मुवक्किल वकील का तो कभी वकील मुवक्किल का शोषण कर लेता है। कभी जज वकील का तो कभी
वकील जज का। अक्सर पेशकार, दफ्तरी,
कार्यालय कर्मचारी, अर्दली,
वादी और प्रतिवादी का शोषण कर लेते हैं तो कभी-कभी कोई वादी-प्रतिवादी भी उन पर भारी
पड़ जाता है। यहाँ सभी उदाहरणों में शोषण का भाव केवल और केवल आर्थिक है। कभी वकील
मुवक्किल से मनमाने पैसे ऐंठ लेता है, कभी मुवक्किल बिना फीस चुकाए ही अपना काम
निकाल लेता है। ये ही सिलसिला सभी पदों पर आसीन लोगों और जनता के बीच चलता ही रहता
है।
सारे जज इस प्रकार के शोषण की श्रेणी में
नहीं आते। कुछ आते हैं। अब चूंकि भ्रष्टाचार हर विभाग में है तो कचहरी में भी है।
पर फिर भी मेरा अनुभव है कि न्यायालय में भ्रष्टाचार का चरम नहीं है। हाँ, पर न्यायाधीशों को राजनीतिक दबाव और शोषण का शिकार
होना पड़ता है। वादों की अधिकता और हाइ प्रोफ़ाइल केसेज़ में निर्णय देने का तनाव
बहुत गंभीर होता है।
खैर कचहरी में जो सबसे ज़्यादा शोषित है वो
है किसी भी वकील का जूनियर। छोटे शहर की कचहरी में कोई अधिवक्ता किसी को जूनियर
रखते हुए उसे स्टाइपेंड नहीं देता। वैसे तो हमारी खुद की मजबूरी होती है वकालत के
गुर सीखने के लिए एक गुरु की शरण लेना और जैसा कि सर्वविदित है या कहें कि पुरातन काल
से प्रथा है कि गुरु से ज्ञान लेने के लिए उसे गुरु दक्षिणा देते हैं, ना कि ज्ञान लेने की प्रक्रिया में किए गए उसके निजी
कार्यों के लिए पारिश्रमिक। तो बस गुरू की शरण में आओ और लग जाओ काम पे। अब होगा
क्या कि गुरु जी, जो आपके आने से पहले तक खुद करते थे, वो अब चेले से कराएंगे। जैसे दरख्वास्त लिखना, अदालत में जमा करना,
तारीखेँ लाना, संबन्धित अदालत के कार्यालय में जा कर
वाद से जुड़ी सूचनाएँ इकट्ठी करना, पीने के लिए पानी लाना, इत्यादि-इत्यादि। खैर ये सब ज़रूरी है, सीखने के लिए और पानी पिलाना तो पुण्य का काम है।
पर इस सब में शोषण कहाँ है? अरे भाई! आते-आते ही शोषण शुरू थोड़े हो जाएगा। अब बात
ये है कि उपरलिखित कार्य कोई जूनियर कितने दिन में सीख जाता है। 15 दिन या बहुत से
बहुत 1 महीना। हाँ, सारी अदालतों और उनके कार्यालयों के नाम
और रास्ते याद करने में थोड़ा समय और लगता है। बीच-बीच में न्यायालय परिसर में परिवर्तन
भी होते रहते हैं। कब कौन सी अदालत का कमरा बदल जाएगा पता नहीं चलता, जब ढूंढते हुए पहुँचो तो कहीं ना कहीं मिल ही जाएगी।
चलिये मान लिया कि दरख्वास्त लिखने का गुर सीखने में भी कुछ और समय लगता है।
क्यूंकी इन प्रार्थनापत्रों के भी बहुतेरे प्रकार होते हैं। इन्हें रटा नहीं जा
सकता, लिखते-लिखते ही अभ्यास होता है। सब मिला
लो तो भी अधिकतम 6 महीने। 6
महीनों में कचहरी
अपरिचित से अपनी-अपनी लगने लगती है। ज़्यादातर लोग पहचानने लगते हैं। पर इस सब में
गुरु जी को ये समझ नहीं आता कि अब दरख्वास्तों और तारीखों से आगे बढ़ने का समय आ
गया है। अब ये शिष्य के ऊपर भी निर्भर है कि उसने वो सीख पाया या नहीं जो गुरु जी
ने सिखाया ही नहीं। कभी-कभी वाद पढ़ने का मौका लग ही जाता है, तो गुरु जी के दिमाग को पढ़ने का मौका मिल जाता है।
उसके अलावा पोस्ट-मोरटेम रिपोर्ट्स, अस्पताल की जारी की गयी अन्य रिपोर्ट्स, किसी भी तरह का कागज़ी साक्ष्य, पुलिस रिपोर्ट्स आदि भी अगर पढ़ने का मौका मिलता रहा
हो तो आपका वकील दिमाग चलता रहता है। पर गुरु जी को यकीन नहीं होता कि आप कितना और
क्या सीख चुके हैं। उनका वही ढर्रा चलता रहता है। अगले कई सालों तक। किसी अदालत
में जज के सामने बोलने का मौका तभी मिलेगा जब कोई ख़ास बात ना कहनी हो और गुरु जी
वो बेख़ास बात खुद जा के कहने में रुचि ना रखते हों। ध्यान रहे कि इन 6 महीनों में
जूनियर की कोई आमदनी नहीं होती है और कभी-कभी तो अपनी जेब से भी खर्च करना पड़ जाता
है।
ये तो बात रही सिर्फ गुरु जी की, पर आपके गुरु जी के बस्ते के पास जितने वकील बैठते
हों वो सब आपके गुरु स्वतः बन जाते हैं। नहीं-नहीं सिखाने के लिए नहीं, अपना-अपना काम कराने के लिए। “फलाने कोर्ट में जा रही हो बिटिया, हमाई एप्लिकेशन भी लगा देना, और ये चार दरख्वास्तें और ले जाओ, इन्हें भी जगह पर जमा करती आना।“ डायरी देखा आना, फलाने केस में तारीख ले आना, वगैहरा। ये सब चलता ही रहता। अब शिष्य/शिष्या की
मजबूरी है, सभी का हुक्म बजाना है। 3-3 मंजिलों पे
बने ऑफिसों के चक्कर लगाने हैं। धूप में, गर्मी में,
पसीने से लथपथ दौड़ लगाते रहना है, वो भी किसी और के काम के लिए जिसके लिए
कोई पारिश्रमिक नहीं मिलना है।
जूनियर के शोषण का एक और बेहतरीन उदाहरण
है उसका खर्चा करवाना। हर वर्ष ‘ओथ कमिशनर’
(oath commissioner) के लिए नए वकीलों से आवेदन लिए जाते हैं
और जो चुने जाते हैं वो 1 वर्ष के लिए ओथ कमिशनर के रूप में कार्यरत रहते हैं। ओथ
कमिशनर का काम होता है एफ़िडेविट्स, बेल एप्लीकेशन्स, इत्यादि पर व्यक्ति का वेरिफिकेशन कर के टिकट और मोहर
लगाना और अपने दस्त्ख्वत करना। इसके लिए उसे वो टिकट यहीं कचहरी से खरीदने पड़ते
हैं (50-100 या अधिक रुपए के) और फिर जब भी कोई वेरिफिकेशन करना होता है तो उसके बदले
उसकी फीस मिलती है (10-20 रुपये पर टिकट)। पर गुरु जी और आस पास वाले ना माने हुए गुरु
भी वेरिफिकेशन करा जाते हैं, हस्ताक्षर-मोहर-टिकट सब लगवा जाते हैं पर
फीस देना उन्हें याद नहीं रहता। मैंने तो अपनी वकालत के पहले साल में ही ये तमाशा देख
लिया था। दोबारा ओथ कमिश्नर के लिए आवेदन ही नहीं किया।
अब जूनियर शोषित लड़का है या शोषित लड़की इसका
भी फर्क पड़ता है। मेहनत कराने के मामले में मेरी कचहरी के गुरु लड़कियों पर थोड़ा रहम
रखते हैं। लड़कों के शोषण के बारे में बात करूंगी तो ये भाग समाप्त नहीं कर पाऊँगी.......
Very interesting description
जवाब देंहटाएंGood.
लिखती रहो दिन प्रतिदिन "मेरी कचहरी" रोचक होती जा रही है I
जवाब देंहटाएंजी बिल्कुल, आशीर्वाद और सहयोग बनाएं रखें।
हटाएंकचहरी के भीतर की और नवप्रशिक्षु वकीलों के जीवन की सच्चाई लिखी है आपने ।
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