भाग 13
लंबी अस्वस्थता और आँखों में परेशानी के
चलते पिछले 1 महीने से कुछ लिखना नहीं हो पाया। आँखों की तकलीफ अपाहिज जैसा एहसास
करा देती है। दिमाग में अनेकानेक विचार और भाव कौंधते रहे पर इतनी मजबूर थी कि
शब्दों को लेखन के रूप में उतार नहीं पायी। पर आज करवाचौथ के पावन पर्व पर मेरी
कचहरी का भाग 13 लिखना अति महत्त्वपूर्ण है। आँख में दर्द है पर फिर भी लिखना तो
बनता है। क्यूंकी एक मज़ेदार किस्सा है मेरे पास जो मैं मेरे पाठकों से अवश्य ही
साझा करना चाहती हूँ और आज ना किया तो कल इसका महत्त्व समाप्त हो जाएगा।
तो बात कुछ साल पहले की है। करवाचौथ का ही
दिन था। मैं रोज़ की तरह कचहरी पहुंची थी। ये मौसम और समय ऐसा होता है कि गर्मी कम
हो जाती है और माहौल खुशनुमा सा होने लगता है। कचहरी इसी मौसम में सहनीय हो जाती
है। ना ज़्यादा गर्मी, ना ज़्यादा सर्दी, ना बारिश की किच-किच। करवाचौथ के दिन का कुछ अपना अलग
ही अंदाज़ होता है। सिर्फ शादी-शुदा औरतें ही नहीं पुरुष भी सजे-सजे से और खुश-खुश
से दिखाई जान पड़ते हैं। आज के दिन पुरुषों के चेहरे पे कुछ अलग ही रौब और ओज चमक
रहा होता है। ‘मेरी पत्नी आज मेरी लंबी उम्र के लिए सारा
दिन भूखी-प्यासी व्रत करेगी’ ये दंभ उनके चेहरों पर ऐसे हिलोरें मारता
है कि वो चाहे जितना चाहें छुपाए नहीं छुपता। वकील रूपी पुरुष जो अक्सर अपने आगे
पत्नी तो क्या किसी महिला को कुछ नहीं समझते अचानक आज इस दिन अपनी पत्नी के प्रति
सुकोमल हृदय वाले हो जाते हैं और सबके बीच बैठ कर उसका गुणगान भी कर लेते हैं।
हाँ! तो हुआ कुछ ऐसा कि कचहरी की उस सुंदर
सुबह को सभी विवाहित पुरुष अधिवक्ता खिले-खिले से प्रतीत हो रहे थे। किसी के सिर
पर किसी भी तरह का तनाव नहीं जान पड़ रहा था। शायद पत्नी के व्रत के आरंभ होते ही
पुरुषों पर कुछ मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी पड़ने लगता है। कचहरी में काम में भी कुछ
हल्का ही था। सभी लोग बस गुटों में एक दूसरे के साथ बैठ कर चर्चा कर रहे थे। मेरी
सीट के पास भी सभी बुज़ुर्गवारों का गोलमेज़ सम्मेलन आरंभ हुआ।
“आज तो करवाचौथ है भाईसाहब, मैडम ने सुबह खाना दिया या नहीं?”
“अरे! कैसी बात करते हो मिश्रा, व्रत उनका है हमारा थोड़े, खाना कैसे नहीं बनाएँगी। उनके चक्कर में सब थोड़े भूखे
रहेंगे।“
“अरे पंडित जी, आप तो नाराज़ हो गए। हम तो बस ऐसे ही पूछ लिए। अब आजकल
के जमाने में वो बात कहाँ रही। अब तो....”
-(दो वकीलों के बीच की बात)
मेरे पास ही बैठते हैं मिश्रा जी। बुजुर्ग
हैं और बीमार भी रहते हैं पर रौब में कोई कमी नहीं है। मुझसे कुछ ना कुछ चर्चा
करना उन्हें बहुत भाता है। मुझसे पूछ बैठे मेरी माँ व्रत कैसे रखती हैं। मैंने
जवाब में कहा जैसे सहूलियत हो। सेहत और तबीयत से ऊपर कुछ नहीं। वो पानी भी पीती
हैं और चाय भी। इस पर उन्होने बड़ा तुनक के कहा हमारे घर में तो वो पानी भी नहीं
पीतीं। इस पर मुझसे रहा ना गया और मैंने उनसे पूछ लिया कि क्या लगता है आपको उनके
पानी ना पीने से सारा दिन भूखे रहने से सचमुच आपकी उम्र बढ़ रही है। उनका शारीरिक
कष्ट आपका जीवन मज़बूत कर रहा है। इस बात पर वो खिसयाए और बोले, “अब बिटिया, हमने नहीं कहा उनसे कभी कुछ, सदियों पुरानी रीत है। हम क्या कर सकते हैं। उनकी
आस्था है। अब हम कैसे उनकी श्रद्धा और आस्था में बाधा बने।“
मैं मन ही मन हंसी और फिर मैंने कहा
“अच्छा अंकल जी, ये बताइये कि आखिर ये व्रत औरतों को रखना
ही क्यूँ पड़ता है?” अब पता नहीं बिटिया पुरातन काल से चला आ
रहा सब।“ वो बोले। फिर मैंने कहा “मैं बताती हूँ,
वो ऐसा है कि जब ब्रह्मा जी धरती की रचना करने कर रहे थे तो मनुष्य बनाते समय
उन्होने पहले स्त्री का निर्माण किया और सारी मेहनत,
सारा ध्यान, सारा अच्छी गुणवत्ता वाला मटिरियल, सब लगा डाला। जिसके परिणाम स्वरूप अकल्पनीय, सर्व गुण सम्पन्न,
अपार सहनशक्ति और मनोबल से युक्त स्त्री की रचना हुई। पर फिर ब्रह्मा जी को समझ
आया कि अभी तो उन्हें पुरुष की रचना भी करनी है और उनके प्रॉडक्शन यूनिट में तो बस
छीलन बचा है। फिर उसी बचे-कुचे छीलन से ही उन्हें पुरुष की रचना करनी पड़ी। जिसका
परिणाम ये हुआ कि पुरुष की मेकेनिस्म में मैनुफेक्चुरिंग डिफ़ेक्ट आ गया। अब इस
डिफ़ेक्ट को दूर करने का कोई रास्ता ब्रह्मा जी के पास था नहीं और चूंकि उनकी सारी
कृपा स्त्री को पहले ही प्राप्त हो चुकी थी तो उन्होने स्त्री को पुरुष की सुरक्षा
का दायित्व सौंपते हुए अपनी दृढ़ चेतनाशक्ति के बल से समय-समय पर पुरुष के लिए
भोजन-जल त्याग कर अपने ओज को पुरुष को समर्पित करने के लिए कहा। यही कारण है कि एक
ही पुरुष के लिए पहले उसकी माँ, फिर बहन और फिर उसकी पत्नी बार-बार व्रत
रखती हैं और ऐसे वो वर्ष प्रति वर्ष अपने जीवन को सफलता और संबल से जी पात है। वरना
सोचिए क्यूँ कभी किसी पुरुष को स्त्री के लिए व्रत नहीं रखना पड़ता? क्यूंकी स्त्रियाँ तो स्टील बॉडी होती हैं, उन्हें लंबी उम्र की क्या ज़रूरत है। है ना!”
इतना कह के बस मैं प्यार से मुस्कुराइ और
अंकल जी और ज़्यादा खिसिया गए। आस-पास वाले अधिवक्तागण जो भी सुन रहे थे वो भी
इधर-उधर हो गए। अचानक कचहरी में काम बढ़ गया।
नोट: ये वाक्या केवल हास्य उत्पन्न करने के
लिए है। ये एक व्यंग है रूढ़िवादिता पर। इस लेख के माध्यम से मैं किसी की भी आस्था को
ना तो चोट पहुंचाना चाहती हूँ ना ही परम्पराओं पर किसी प्रकार प्रशचिन्ह लगा रही हूँ।
इसे पढ़ने के बाद मुझे फेमिनिस्ट की श्रेणी में भी ना रखें। क्यूंकी मुझे फेमिनिन्स्म
का सही अर्थ नहीं पता। सभी को करवाचौथ की ढेरों शुभकामनायें।
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