सोमवार, 24 सितंबर 2018

न्याय+आलय


भाग 12

हाल ही में मेरी कचहरी में चुनाव थे। बार काउंसिल फतेहगढ़, फ़र्रुखाबाद के चुनाव। हर पाँच साल में होते हैं एक बार। मुख्य सचिव, सचिव, कोशाध्यक्ष, पुस्तकालय प्रभारी आदि इत्यादि पदों के लिए। मैंने अपने अब तक के वकालत काल में ये दूसरी बार चुनाव को देखा है। सच कहूँ तो मेरी समझ के बाहर है इस मत प्रक्रिया और चुनाव का अर्थ। कौन क्या काम करता है, क्या उत्तरदायित्व निभाता है पता नहीं। इन पदों पर आसीन अधिवक्ताओं की कार्यप्रणाली क्या होती है? इनकी अवश्यकता क्या है? मुझे कुछ पता नहीं। न्यायालय में पुस्तकालय भी है? उसकी तो मैंने कभी शक्ल भी नहीं देखी। हाँ मुख्य सचिव पद पर आसीन वरिष्ठ अधिवक्ता महोदय जो पिछले 3 सालों से लगातार इस पद पर अपना कब्जा जमाये बैठे हैं और इस बार भी भारी मतों से विजयी हुए हैं उनसे ज़रूर परिचय है मेरा। वो क्या है न वो भी कायस्थ हैं और हम भी। ये कायस्थ वाद के चक्कर में उन्हें पिछले 4 सालों से कोई हरा नहीं पाया। अब वो काम क्या करते हैं मुझे नहीं पता। पर हाँ नव वर्ष पर नयी डायरी ज़रूर मिल जाती है बार काउंसिल की तरफ से। अरे वही डायरी जिसमें पूरे साल हम दिन और तारीख के हिसाब से अपने केसेज़ का ब्योरा रखते हैं। फलानी तारीख पे, फलाने बनाम फलाने, फलानी अदालत और फलाना मुद्दा।

इसके अलावा जब भी नए पुराने वकीलों को कोई फॉर्म भर कर इलाहाबाद बार काउंसिल भेजना होता है, तो मुख्य सचिव की चिड़िया मेरा मतलब है हस्ताक्षर और मोहर की आवश्यकता पड़ती है। मैंने भी जब बार काउंसिल ऑफ इंडिया का इम्तिहान पास किया था तो उसका पासिंग सर्टिफिकेट मंगाने के लिए मुख्य सचिव साहब का रेफेरेंस लेटर लगा था। ऐसे ही अधिवक्ता जीवन बीमा और दुर्घटना बीमा इत्यादि के कई फॉर्म भरे हैं पर पॉलिसी आज तक हांथ नहीं आई। वैसे अवश्यकता पड़ने पर मुख्य सचिव प्रत्येक वकील के साथ खड़े होते हैं, और बार काउंसिल शायद कुछ अनुदान या कर्ज़े का भी प्रबंध करती है। इस प्रक्रिया के बारे में मुझे ठीक से जानकारी नहीं है। पर हाँ इतना देखा और समझा है कि बार काउंसिल ऑफ जिला हो या राज्य या भारत, वकीलों के प्रति ना तो जिम्मेदार है ना ही समर्पित।

कोशाध्यक्ष शायद उस धन का लेखा जोखा रखता हो जो कि नए- पुराने वकीलों से बार काउंसिल की फीस के तौर पर जमा कराया जाता है और फिर उसका उपयोग बार काउंसिल से संबन्धित ही कार्यों में उपयोग किया जाता है। फीस मामूली है तो जमा करने में कोई परेशानी नहीं होती किसी को। पर मैंने तो कभी जमा नहीं की। चुनाव के पहले कोई ना कोई उम्मीदवार खुद ही जमा करा देता है। आखिर वोट मांगने हैं। ऐसे ही और भी बहुत सारे पद हैं जिनके बारे में मैं बिलकुल शून्य हूँ। काफी समय से कचहरी गयी नहीं पर वोट देने तो जाना था। कमसेकम इस बहाने साथी अधिवक्ताओं को मेरी याद आ रही थी और मेरी अवश्यकता का आभास हो रहा था। वैसे भी चुनाव कहीं के भी हों मतदाता के भाव बढ़ ही जाते हैं।

कॉलेज में छात्र संघ के चुनाव होते थे तो सारे लड़के आ कर सिस्टर-सिस्टर बोल के पैर छू के जाते थे और वोट मांगते थे। ये वही कमीने थे जो बाकी के साल घूर-घूर के देखने और टोंट कसने में समय बिताया करते थे। हालांकि ये कॉलेज नहीं कचहरी है। यहाँ ऐसा कुछ नहीं। हाँ नए लड़के बुजुर्ग वकीलों के पैर छूते ही हैं। कम उम्र महिला अधिवक्ताओं के सामने बढ़िया से हांथ जोड़ कर मत की अपेक्षा की जाती है। चूंकि मैं काफी समय से कचहरी गयी नहीं तो इस बार कोई भी घर पर वोट मांगने नहीं आया। बस कुछ लोगों के फोन आए और फिर उन्हीं कुछ लोगों को अपना मत दे आयी। मतदान वाले दिन तो वैसे भी कचहरी में और कोई काम नहीं होता। पुलिस का तगड़ा पहरा होता है, मत मांगने वालों का जमावड़ा, जगह-जगह उम्मीदवारों के विज्ञापन, परचियाँ, झंडे, बिलकुल मेले जैसा सब कुछ। मतदान करने के बाद मतकक्ष से बाहर निकलने के रास्ते में ही हमको ½  किलो का एक बन्नू हलवाई के यहाँ का मिठाई का डिब्बा पकड़ाया गया। उसे लंच पैकेट कह सकते हैं। जिसके अंदर 1 खस्ता कचोरी, 1 सोहन पापड़ी, 1 मेवे का लड्डू, 1 बालू शाही और 1 दालमोंठ का पैकेट था। हाँ जी, इतना सामान कि आराम से पेट भर जाए। चलो कचहरी तक आने का, मत देने का ये फायदा तो अच्छा ही है। वहाँ तो बाकी वकील अपना-अपना पैकेट चट कर लेते हैं, हम घर तक लिए चले आए।  

काफी समय से परेशानी के दौर से गुज़र रही हूँ, अपनी बीमारी, पापा की बीमारी आदि-आदि। इसी कारण कहीं भी पूरी तरह से एकाग्र नहीं हो पाती। न तो कचहरी और ना ही लेखन। मतदान वाले दिन भी इतनी व्यस्तता थी कि पिताजी को अस्पताल से छुट्टी करा कर घर लाना था। मज़े की बात ये है कि किसी को फर्क नहीं पड़ता आप किस अवस्था में हैं, आप पर क्या बीत रही है। चुनाव है और मत अपेक्षित है तो आप अस्पताल में ही क्यूँ ना बैठे हों, उम्मीदवार या उसके गुर्गे आपको सांत्वना देने के बजाए वोट अपील कर के चले जाते हैं। मेरे साथ भी यही हुआ। जिस दिन पापा को भर्ती कराया, उसकी पिछली रात से मैं भी ना तो सोयी थी और ना ही स्वस्थ थी। पापा आई.सी.यू में थे आर मैं बाहर बैठी लगभग ऊंघ रही थी। मुझ पर नींद के साथ-साथ थकान भी सवार थी। कुछ खाने की ना तो फुर्सत मिली थी ना ही इक्षा हो रही थी। इसी दौरान एक महानुभाव आए और मुझे वहाँ बैठा देख कर उन्होने मुख्य सचिव साहब के लिए अपनी वोट अपील कर दी। इतना ही नहीं उन्हें फोन भी मिला दिया। गुस्सा मुझे यूं आया था कि क्या बताऊँ। पर फिर भी शालीनता से मैंने उनकी बात सुनी और हाँ-हाँ कहते हुए फोन वापिस उन्हें पकड़ा दिया। एक बार भी उनके मुंह से ये नहीं निकला कि परेशान ना होना सब ठीक हो जाएगा, या कोई ज़रूरत हो तो हमें बताना। परायों से कौन उम्मीद रखता है, पर तसल्ली के दो बोल काफ़ी होते हैं। पर जब चुनाव हो तो सब बेमानी है। फिर चाहे वो कचहरी हो या देश, वकील हो या नेता।
  

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