भाग 11
इस बार न्याय+आलय का अगला भाग लिखने में
काफी समय लग गया। समझ नहीं आ रहा था कि क्या लिखूँ। मस्तिष्क में चाहे जितने विचार
या मुद्दे घूम रहे हों पर उन पर ध्यान केन्द्रित कर के शब्दबद्ध करना यूं आसान
होता तो बात ही क्या थी। कुछ महीनों पहले हमारे सामने एक भयावह घटना प्रत्यक्ष हुई
थी। जम्मू कश्मीर के कठुआ गाँव में एक मासूम बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार और
उसकी नृशंस हत्या। ये घटना जनवरी में घटी थी पर राजनीतिक दबाव के कारण इसे मीडिया
ने कवर नहीं किया, या शायद इस घटना को दबा/छुपा कर रखा गया
और पूरे देश को इस बारे में अप्रैल में मालूम पड़ा। बंजारे समुदाय की उस मासूम 8
वर्षीय बालिका के साथ 6 लोगों ने मिल कर दुष्कर्म किया था, उसे 6 दिन तक बंधक बना के रखा था और उसे लगातार
भूखा-प्यासा रखते हुए मिश्रित नशे की ढेर सारी गोलियां दी गईं थीं। ये सब वहाँ के
एक मंदिर ‘देवीस्थान’
के गर्भगृह में होता रहा था। 6 दिन बाद उस बच्ची को बहुत ही नृशंसता के साथ मार
दिया गया था। उन 6 लोगों में एक 60 वर्षीय मंदिर का पुजारी है, दूसरा उसका बेटा,
तीसरा उसका नाबालिग भतीजा, चौथा उसके भतीजे का दोस्त और दो पुलिस
कॉन्स्टेबल। इस घटना की ताज़ी खबर के अनुसार वो 6 नहीं 8 लोग थे। संयोगवश सोशल
मीडिया के जरिये कुछ पत्रकार मित्रों के द्वारा ही पीड़िता की पोस्ट मार्टम रिपोर्ट
और पुलिस द्वारा दायर की गयी चार्जशीट के कुछ अंश पढ़ने को मिले थे। हाल ही में
सीबीआई की चार्जशीट सामने आई है। पूरी घटना का ब्योरा और उसके शरीर के साथ किए गए
ज़ुल्म को पढ़ना और फिर एक बार लिखना आसान नहीं है। रोंगटे खड़े हो जाते हैं, दिल दहल जाता है। इतनी यातना उसके भाग्य में क्यूँ थी?
अब आप सोच रहे होंगे कि ‘मेरी कचहरी’ के इस भाग में उस दुर्घटना की चर्चा
क्यूँ कर रही हूँ? कारण है उस घटना के बाद जम्मू-कश्मीर बार
एसोसियेशन और वकीलों की क्रिया-प्रतिकृया और दुष्क्रियाओं की चर्चा। यह घटना अपने
आप में एक ऐसी गंभीर और भयावह घटना थी जिसने मेरे अन्तर्मन और विश्वास को सर्वाधिक
चोट पहुंचाई। सच कहूँ तो बलात्कार और हत्याओं की इतनी तेज़ी से बढ़ती हुई घटनाओं से
हर औरत, हर लड़की और हर बच्ची काँप रही है। 34
वर्ष की उम्र है मेरी, संभ्रांत परिवार से हूँ, कानून पढ़ा है, पुलिस से संपर्क करना और सहायता मांगना
जानती हूँ, अपने अधिकारों को समझती हूँ। पर फिर भी
डरने लगी हूँ। कब, कहाँ,
कैसे, किस समय,
किस लड़की, औरत या बालिका पर कोई झपट पड़ेगा या
पड़ेंगे कोई नहीं जानता। मैंने घर से बाहर निकलना बहुत कम कर दिया है। मेरा डर
बेवजह है पर हाँ, मैं डरने लगी हूँ। हर रोज़ न जाने कितनी
औरतें, लड़कियां नौकरी पर निकलती हैं मुझे उनके
लिए भी डर लगता है।
इस डर की बड़ी वजह है, बलात्कारियों को दिया जाने वाला सहयोग, सुरक्षा। जी हाँ! जिस तरह पहले कठुआ, फिर उन्नाओ और अब मुज़फ्फ़रपुर में दोषियों को संरक्षण
प्रदान किया जा रहा है, असुरक्षा को और बढ़ा देता है। एक वकील
होने के नाते ऐसा नहीं कि वकीलों की गलत सोच या दिशा का समर्थन भी मैं करू। कठुआ
में जिस प्रकार दोषियों के पक्ष में जम्मू बार एसोसियशन के अध्यक्ष और अन्य वकीलों
ने उस दुर्दांत घटना की छानबीन, पुलिस प्रक्रिया, चार्जशीट दायर करने की प्रक्रिया में हस्तक्षेप किया
और उन बलात्कारियों के पक्ष में सड़क पर तिरंगा लहराकर, नारे लगा कर उनका बचाव करने का प्रयास किया। ये सब
सोचनीय है। चूंकि ये सब एक मंदिर के गर्भगृह में घटा था और उसमें मंदिर का पुजारी
भी शामिल था, इसे धर्म से जोड़ दिया गया। लड़की मुसलमान
थी और हिन्दू बलात्कारी। पढ़ने में ही कितना वीभत्स लगता है कि अपराध और पीड़ित को
उसकी गंभीरता के बजाय धर्म से संबोधित किया जाता है। तो ये सोच कितनी वीभत्स होगी।
यहाँ तक कि पीड़िता का केस लड़ने वाली महिला वकील को भी डराया, धमकाया गया। केस ना लड़ने के लिए मजबूर किया जाता रहा।
पर वो बहादुर महिला आज भी पूरी शिद्दत से उस बच्ची और उसके परिवार को न्याय दिलाने
के लिए सारी मुश्किलों को झेलते हुए भी अपना फर्ज़ निभा रही है।
आज भी उस मामले में एक महत्त्वपूर्ण गवाह
के साथ पुलिस कस्टडी में अत्याचार हो रहा है। उस मासूम की आत्मा को न्याय मिलने
में अभी देर है। मेरा मानना है, और शायद यही तार्किक भी है कि वकीलों का
काम है अदालत में अपने मुवक्किल का पक्ष रखना,
उसका बचाव और समर्थन करना। ना कि सड़क पर उतर कर रैलीयां निकाल कर, तिरंगा लहराकर दोषियों के बचाव में नारे लगाना। अगर
वकील स्वयं ही अदालत के बाहर ये फैसला करने लगे कि कौन दोषी है और कौन नहीं तो
अदालतों की आवश्यकता ही क्या रह जाएगी और क्या ये तरीका किसी जंगलराज से कम है? वकील खुद ही अगर पुलिस प्रक्रिया, छानबीन इत्यादि में हस्तक्षेप करेंगे तो आखिर दोषियों
का दोष सिद्ध किस प्रकार होगा?
अधिवक्ताओं के इस आचरण से मुझे ऐतराज है।
मुझे लगता है कि वकील अपने कार्यक्षेत्र और उनकी सीमाओं का उल्लंघन कर रहे हैं और
अपनी मर्यादा के बाहर जा कर आचरण करना उनके लिए भी दंडनीय होना चाहिए। इस ओर मैंने
अपना प्रथम प्रयास किया और change.org पर एक ऑनलाइन पिटीशन दायर किया। उसमें ‘बार काउंसिल ऑफ इंडिया’
और ‘सर्वोच्च न्यायालय’ को संबोधित करते हुए मैंने उनसे ये प्रार्थना की थी
कि ‘जम्मू बार एसोसियशन’ से उनके इस आचरण का हिसाब मांगा जाए और उनका दोष
सिद्ध होने पर उन पर सख्त कार्यवाही की जाए। साथ ही सभी राज्यों की बार काउनसिल्स
पर सख्त नियम लागू किए जाने चाहिए जिससे कि आने वाले समय में इस तरह की घटनाएँ
दुबारा घटित ना हों और अधिवक्ता अपने कार्य की मर्यादा ना भूलें। उस पिटीशन का
लिंक – https://www.change.org/p/bar-council-of-india-lawyers-and-bar-association-protesting-in-support-of-criminals-must-be-punished?recruiter=246244876&utm_source=share_petition&utm_medium=copylink&utm_campaign=share_petition
मेरे पिटीशन को 3000 से अधिक लोगों ने
अपने हस्ताक्षरों द्वारा समर्थन दिया। उस समय मामला ज़ोरों पर था ‘सर्वोच्च न्यायालय’
ने बार ‘काउंसिल ऑफ इंडिया’ से ‘जम्मू बार एसोसियशन’ से जवाब तलब करने का आदेश भी जारी किया। एक जांच
कमिटी भी बैठाई गयी। पर नतीजा कुछ खास नहीं निकला। जम्मू बार एसोसियशन ने सारे इल्जामों
को सिरे से नकार दिया (जांच कमिटी की जांच के बारे में अब तक कोई जानकारी नहीं, हुई भी या नहीं)। ‘बार
काउंसिल ऑफ इंडिया ने भी अपनी खानापूर्ति करते हुए ‘सर्वोच
न्यायालय’ को जवाब में यही जानकारी दी कि ‘जम्मू बार एसोसियशन’
ने कठुआ कांड में पुलिस की कार्यवाही में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया।
बहुत अफसोस होता है मुझे कि ‘बार काउंसिल ऑफ इंडिया’ को स्वयं ही असल में अपनी छवि का कोई खास मान नहीं
है। देख रही हूँ कि अधिकतर मामलों में ‘सर्वोच्च न्यायालय’ स्वयं ही संज्ञन ले रहा है। पर कब तक और कितना और
किन-किन बातों पर ‘सर्वोच्च न्यायालय’ ही संज्ञान ले सकता है। कृयांवन तो नीचे बैठे
संबन्धित अधिकारी या प्रशासन को ही करना है।
ऐसा नहीं है कि ‘बार काउंसिल ऑफ इंडिया’
वकीलों के हित के लिए ही कुछ बहुत अच्छा कर रहा हो। अदालतें कैसे चल रही हैं, ये उसके अंदर बैठे लोग ही जानते हैं। मेरे पिटीशन को
और अधिक सहयोग नहीं मिल पाया, मैं भी आगे नयी जानकारी अपडेट नहीं कर
पायी क्यूंकी कुछ हो ही नहीं रहा। अब मैं इस प्रयास में हूँ कि अपनी पूरी बात किसी
तरह ‘सर्वोच्च न्यायालय’ तक सीधे पहुंचा पाऊँ। लोकतन्त्र के चार स्तंभों में से
न्यायपालिका भी एक महत्त्वपूर्ण स्तम्भ है। जैसे पत्रकारिता अपने पतन पर है न्यायपालिका
नहीं होनी चाहिए। इस लेख के माध्यम से मैं अपने पाठकों से अपील करती हूँ कि मेरे पिटीशन
पर हस्ताक्षर करें (लिंक ऊपर दिया है, पुनः लेख के अंत में भी मिलेगा। उस लिंक को आप कॉपी कर के सर्च बार में पेस्ट कीजिये और एंटर कीजिये) और मेरे प्रयास
का समर्थन करे। जिससे मैं अपनी बात ‘सर्वोच्च न्यायालय’ तक पूरी मजबूती के साथ पहुंचा पाऊँ। न्यायपालिका को उसके
पतन मार्ग से ऊपर उठ कर देश और जनता के हित में पुनः लौटना होगा।
https://www.change.org/p/bar-council-of-india-lawyers-and-bar-association-protesting-in-support-of-criminals-must-be-punished?recruiter=246244876&utm_source=share_petition&utm_medium=copylink&utm_campaign=share_petition
बार कौंसिल ऑफ़ इंडिया अगर जिलों की बार कौंसिल्स के द्वारा न्याय प्रणाली में किये जाने वाले हस्तक्षेप पर रोक नहीं लगा सकती तो सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में आना ही चाहिए I कई बार पढने को मिला है कि वरिष्ठ वकीलों को भी सर्वोच्च न्यायालय ने बहस के दौरान जोर से बोलने पर मना किया है I वकीलों को न्याय अपने आप नहीं करना चाहिए जैसे प्रायः सुनने में मिल जाता है कि अदालत में आये आरोपी को वकीलों के एक समूह ने पीट दिया I
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