भाग 8
हास्य व्यंग से शुरू हुई ये शृंखला अब
गंभीर होने लगी है क्यूंकी जिन मनोभावों के साथ अब मैं लिखती हूँ वो गंभीर हैं। जब
तक मैंने वकालत की पढ़ाई नहीं की थी या सही कहूँ तो जब तक कचहरी आना शुरू नहीं किया
था तब तक मैं भी वैसी ही थी जैसे सब हैं। न्यायपालिका और कानून व्यवस्था को दोष
देने वाले। “तारीख पे तारीख मिलती है साहब पर यहा इंसाफ नहीं मिलता।“ कहना बहुत
आसान है और जमीनी हकीकत भी है। पर ऐसा है क्यूँ?
क्या कारण है? क्या न्यायपालिका वाकई इतनी अक्षम है, वकील, न्यायाधीश,
कर्मचारी, पुलिस सब निरर्थक हैं। क्या कोई भी ठीक
से काम नहीं करता? क्या किसी का अपने काम के प्रति समर्पण
नहीं है? ये बहुत सारे सवाल हैं जिनके जवाब इस
कचहरी का भाग होने वाला ही जान और समझ सकता है।
ऐसा बिलकुल नहीं है कि कोई काम नहीं करता, कोई समर्पित नहीं है। हर व्यक्ति अपनी आजीविका कमाने
के लिए कार्य आरंभ करता है पर धीरे-धीरे समय बीतने के साथ ही समर्पण का भाव स्वतः
ही उसके अंदर समाहित हो जाता है। वकीलों को दोष देना भी आसान है कि वो अपराधियों
का भी पक्ष लेते हैं। पर कोई नहीं समझता कि वकील कभी तय नहीं करता कि उसका
मुवक्किल जिसका वो पक्ष ले रहा है वो अपराधी है या निर्दोष। ये अदालत का काम है। जैसा
कि हमारे संविधान में स्पष्ट है कि “कोई व्यक्ति जब तक अपराधी साबित ना हो जाए तब
तक वो निर्दोष है” और “भारत के प्रत्येक नागरिक को न्याय पाने के लिए बराबर और
उचित अवसर दिया जाना चाहिए, बिना उसकी जाती, धर्म, रंग,
रूप में भेद किए।“ इसी संदर्भ में वकील या अधिवक्ता का कार्य होता है अपने
मुवक्किल का पक्ष अदालत के सामने रखना बिना किसी भेदभाव के। यदि वकील पहले ही निर्णय
ले लेगा कि उसका मुवक्किल दोषी है तो चाह कर के भी वो उसकी निर्दोषता साबित नहीं
कर पाएगा और यदि वो मान के चलेगा कि वो निर्दोष है तो उसे अपराधी सिद्ध होने से
बचा नहीं पाएगा। एक वकील को दोनों ही पक्षों के आधार पर अपने वाद की रूपरेखा तैयार
करनी पड़ती है।
अब बात है कि न्यायपालिका में न्याय पाने
के लिए इतना समय क्यूँ लगता है। हालांकि इस देरी से बचने के लिए फास्ट ट्रेक कोर्ट्स
भी स्थापित किए गए हैं। पर समस्या वही है जो पहले थी। जिसका एक बड़ा और मुख्य कारण
है वादों की अधिकता। स्थिति ये है कि प्रत्येक दिन लगभग हर अदालत में चाहे वो
जूनियर डिवीज़न हो या सीनियर डिवीज़न, निपटारे या सुनवाई के लिए चिन्हित वादों
की संख्या 100 से भी अधिक होती है। मैंने ये संख्या 200 तक भी देखी है। सोच के
देखिये एक वाद कायदे से सुनने में कम से कम भी समय लगा तो 10 मिनट। अगर किसी वाद
में बहस है तो वो आधे घंटे तक जा सकती है। यही अगर किसी वाद में बयान होने हैं तो
उसमे भी 20-25 मिनट या अधिक का समय लग जाता है। अब एक दिन में जितने वाद चिन्हित
हैं उनमे कितनों में बयान होने हैं, कितने दर्ज होने हैं, कितनो में बहस होनी है,
कितनों को सुना जाना है और कितनों में जज को किसी प्रकार का निर्णय देना है? गर्मियों में सुबह 6 बजे से आरंभ हो जाने वाली कचहरी
का कार्य शाम 4 बजे तक चलता है और सर्दियों में प्रातः 10 बजे से साँय 6 बजे तक।
उसके अलावा जज की इक्षा और क्षमता के ऊपर है कि वो निस्तारण के लिए कितनी और देर
तक अपनी कुर्सी पर बैठा रह सकता है।
क्या लगता है? जज, वकील,
अर्दली, पेशकार,
कार्यालय कर्मचारी इंसान नहीं है दिव्यआत्मायें हैं। जिनके पास अथाह शारीरिक और
मानसिक बल है। क्या प्रत्येक दिन में 200 के आस पास वादों का निस्तारण संभव है? क्या ये मानवीय क्षमता के अंतर्गत आता है? अपने अन्तर्मन से ही प्रश्न करें, उत्तर मिल जाएगा। माना कि मामलो का निस्तारण
न्यायपालिका और उसके अधीन कर्मचारियों का उत्तरदायित्व है। पर क्या साधारण जनता
कभी विचार करती है कि मामलों की ये अधिकता आखिर है क्यूँ?
कचहरी का भाग बनिए तो जानेंगे कि झूठे
मुकद्दमों की संख्या कितनी है। या फिर वो मामले कितने हैं जिन्हें सिर्फ दूसरे
पक्ष पर दबाव बनाने के लिए दायर किया जाता है। कितने मामले ऐसे हैं जो पारिवारिक
दुश्मनी में दाखिल किए जाते हैं और फिर कितने मामले ऐसे हैं जिनमे वाकई त्वरित
न्याय की अपेक्षा और आवश्यकता है। न्यायपालिका को दोष देना सरल से सरलतम है पर
न्याय में देरी की जिम्मेदार न्यायपालिका की नहीं बल्कि आप है। घर का नाली विवाद
हो, गाँव में खेत का विवाद हो, आपसी रंजिश में दायर किया गया कोई झूठा विवाद हो, सड़क पर हो गयी छुटपुट नोक-झोंक का विवाद हो, घरेलू संपत्ति का विवाद हो, या फिर यूं ही किसी पर अपना वर्चस्व जमाने के लिए
दायर किया गया किसी प्रकार का फ़ौजदारी वाद। इनकी संख्या इतनी ज़्यादा है कि असल में
न्याय के लिए तड़पते पीड़ित अपनी तारीख का ही इंतज़ार करते रह जाते हैं।
मुझे चिढ़ होती थी देख के, जब देहात से आने वाले लोग जिनके पास असल में आने-जाने
का किराया भी पूरा नहीं होता था, अपनी पत्नी या बेटी को ले के उनके ही
गाँव के किसी अन्य व्यक्ति पर किसी अनावश्यक कारण से छेड़छाड़ का झूठा मुक़द्दमा दर्ज
कराने आ जाते थे। गाँव-देहात में अक्सर लोगों के बीच कहा सुनी और छुटपुट मारपीट की
घटनाएँ हो ही जाती हैं। उनका निपटारा जब पंचायत में नहीं हो पाता तो वो अदालत चले
आते हैं और ये तरीका अपनाते हैं। उसके बाद पूरी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है।
महिला को महिला थाने ले जाओ, उसकी डॉकटरी जांच कराओ, फिर रिपोर्ट सहित केस अदालत में दायर कराओ, बयान काराओ, और फिर 15 दिन बाद दोनों पक्षों के बीच
सुलह हो जाएगी, पैसे का लेन देन हो जाएगा, मामला रफा-दफा। वकील और अदालत दोनों का समय व्यर्थ दोनों
मूर्ख साबित होंगे। इसी सब के चलते जब कोई असली मामला सामने आता है तो ‘भेड़िया आया” वाले अंदाज़ में उस पीड़िता के साथ महिला पुलिस, डॉक्टर और अदालत व्यवहार करती है। क्यूंकी सभी इतने त्रस्त
होते हैं कि जब तक उसकी डाक्टरी जांच में ये सिद्ध नहीं हो जाता कि वो सचमुच बलात्कार
या किसी प्रकार के शोषण से पीड़ित हुई है, उसके प्रति कोई सहनभूति नहीं रख पाता।
भारत में न्याय को बहुत हल्के में और मज़ाक
के तौर पर लिया जाता है। यहाँ कानून का प्रयोग होने से पहले दुष्प्रयोग शुरू हो जाता
है। इस पर अगले अंक में और विस्तार से लिखूँगी......