शनिवार, 30 जून 2018

न्याय+आलय


भाग 8

हास्य व्यंग से शुरू हुई ये शृंखला अब गंभीर होने लगी है क्यूंकी जिन मनोभावों के साथ अब मैं लिखती हूँ वो गंभीर हैं। जब तक मैंने वकालत की पढ़ाई नहीं की थी या सही कहूँ तो जब तक कचहरी आना शुरू नहीं किया था तब तक मैं भी वैसी ही थी जैसे सब हैं। न्यायपालिका और कानून व्यवस्था को दोष देने वाले। “तारीख पे तारीख मिलती है साहब पर यहा इंसाफ नहीं मिलता।“ कहना बहुत आसान है और जमीनी हकीकत भी है। पर ऐसा है क्यूँ? क्या कारण है? क्या न्यायपालिका वाकई इतनी अक्षम है, वकील, न्यायाधीश, कर्मचारी, पुलिस सब निरर्थक हैं। क्या कोई भी ठीक से काम नहीं करता? क्या किसी का अपने काम के प्रति समर्पण नहीं है? ये बहुत सारे सवाल हैं जिनके जवाब इस कचहरी का भाग होने वाला ही जान और समझ सकता है।

ऐसा बिलकुल नहीं है कि कोई काम नहीं करता, कोई समर्पित नहीं है। हर व्यक्ति अपनी आजीविका कमाने के लिए कार्य आरंभ करता है पर धीरे-धीरे समय बीतने के साथ ही समर्पण का भाव स्वतः ही उसके अंदर समाहित हो जाता है। वकीलों को दोष देना भी आसान है कि वो अपराधियों का भी पक्ष लेते हैं। पर कोई नहीं समझता कि वकील कभी तय नहीं करता कि उसका मुवक्किल जिसका वो पक्ष ले रहा है वो अपराधी है या निर्दोष। ये अदालत का काम है। जैसा कि हमारे संविधान में स्पष्ट है कि “कोई व्यक्ति जब तक अपराधी साबित ना हो जाए तब तक वो निर्दोष है” और “भारत के प्रत्येक नागरिक को न्याय पाने के लिए बराबर और उचित अवसर दिया जाना चाहिए, बिना उसकी जाती, धर्म, रंग, रूप में भेद किए।“ इसी संदर्भ में वकील या अधिवक्ता का कार्य होता है अपने मुवक्किल का पक्ष अदालत के सामने रखना बिना किसी भेदभाव के। यदि वकील पहले ही निर्णय ले लेगा कि उसका मुवक्किल दोषी है तो चाह कर के भी वो उसकी निर्दोषता साबित नहीं कर पाएगा और यदि वो मान के चलेगा कि वो निर्दोष है तो उसे अपराधी सिद्ध होने से बचा नहीं पाएगा। एक वकील को दोनों ही पक्षों के आधार पर अपने वाद की रूपरेखा तैयार करनी पड़ती है।

अब बात है कि न्यायपालिका में न्याय पाने के लिए इतना समय क्यूँ लगता है। हालांकि इस देरी से बचने के लिए फास्ट ट्रेक कोर्ट्स भी स्थापित किए गए हैं। पर समस्या वही है जो पहले थी। जिसका एक बड़ा और मुख्य कारण है वादों की अधिकता। स्थिति ये है कि प्रत्येक दिन लगभग हर अदालत में चाहे वो जूनियर डिवीज़न हो या सीनियर डिवीज़न, निपटारे या सुनवाई के लिए चिन्हित वादों की संख्या 100 से भी अधिक होती है। मैंने ये संख्या 200 तक भी देखी है। सोच के देखिये एक वाद कायदे से सुनने में कम से कम भी समय लगा तो 10 मिनट। अगर किसी वाद में बहस है तो वो आधे घंटे तक जा सकती है। यही अगर किसी वाद में बयान होने हैं तो उसमे भी 20-25 मिनट या अधिक का समय लग जाता है। अब एक दिन में जितने वाद चिन्हित हैं उनमे कितनों में बयान होने हैं, कितने दर्ज होने हैं, कितनो में बहस होनी है, कितनों को सुना जाना है और कितनों में जज को किसी प्रकार का निर्णय देना है? गर्मियों में सुबह 6 बजे से आरंभ हो जाने वाली कचहरी का कार्य शाम 4 बजे तक चलता है और सर्दियों में प्रातः 10 बजे से साँय 6 बजे तक। उसके अलावा जज की इक्षा और क्षमता के ऊपर है कि वो निस्तारण के लिए कितनी और देर तक अपनी कुर्सी पर बैठा रह सकता है।

क्या लगता है? जज, वकील, अर्दली, पेशकार, कार्यालय कर्मचारी इंसान नहीं है दिव्यआत्मायें हैं। जिनके पास अथाह शारीरिक और मानसिक बल है। क्या प्रत्येक दिन में 200 के आस पास वादों का निस्तारण संभव है? क्या ये मानवीय क्षमता के अंतर्गत आता है? अपने अन्तर्मन से ही प्रश्न करें, उत्तर मिल जाएगा। माना कि मामलो का निस्तारण न्यायपालिका और उसके अधीन कर्मचारियों का उत्तरदायित्व है। पर क्या साधारण जनता कभी विचार करती है कि मामलों की ये अधिकता आखिर है क्यूँ?

कचहरी का भाग बनिए तो जानेंगे कि झूठे मुकद्दमों की संख्या कितनी है। या फिर वो मामले कितने हैं जिन्हें सिर्फ दूसरे पक्ष पर दबाव बनाने के लिए दायर किया जाता है। कितने मामले ऐसे हैं जो पारिवारिक दुश्मनी में दाखिल किए जाते हैं और फिर कितने मामले ऐसे हैं जिनमे वाकई त्वरित न्याय की अपेक्षा और आवश्यकता है। न्यायपालिका को दोष देना सरल से सरलतम है पर न्याय में देरी की जिम्मेदार न्यायपालिका की नहीं बल्कि आप है। घर का नाली विवाद हो, गाँव में खेत का विवाद हो, आपसी रंजिश में दायर किया गया कोई झूठा विवाद हो, सड़क पर हो गयी छुटपुट नोक-झोंक का विवाद हो, घरेलू संपत्ति का विवाद हो, या फिर यूं ही किसी पर अपना वर्चस्व जमाने के लिए दायर किया गया किसी प्रकार का फ़ौजदारी वाद। इनकी संख्या इतनी ज़्यादा है कि असल में न्याय के लिए तड़पते पीड़ित अपनी तारीख का ही इंतज़ार करते रह जाते हैं।

मुझे चिढ़ होती थी देख के, जब देहात से आने वाले लोग जिनके पास असल में आने-जाने का किराया भी पूरा नहीं होता था, अपनी पत्नी या बेटी को ले के उनके ही गाँव के किसी अन्य व्यक्ति पर किसी अनावश्यक कारण से छेड़छाड़ का झूठा मुक़द्दमा दर्ज कराने आ जाते थे। गाँव-देहात में अक्सर लोगों के बीच कहा सुनी और छुटपुट मारपीट की घटनाएँ हो ही जाती हैं। उनका निपटारा जब पंचायत में नहीं हो पाता तो वो अदालत चले आते हैं और ये तरीका अपनाते हैं। उसके बाद पूरी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। महिला को महिला थाने ले जाओ, उसकी डॉकटरी जांच कराओ, फिर रिपोर्ट सहित केस अदालत में दायर कराओ, बयान काराओ, और फिर 15 दिन बाद दोनों पक्षों के बीच सुलह हो जाएगी, पैसे का लेन देन हो जाएगा, मामला रफा-दफा। वकील और अदालत दोनों का समय व्यर्थ दोनों मूर्ख साबित होंगे। इसी सब के चलते जब कोई असली मामला सामने आता है तो भेड़िया आया वाले अंदाज़ में उस पीड़िता के साथ महिला पुलिस, डॉक्टर और अदालत व्यवहार करती है। क्यूंकी सभी इतने त्रस्त होते हैं कि जब तक उसकी डाक्टरी जांच में ये सिद्ध नहीं हो जाता कि वो सचमुच बलात्कार या किसी प्रकार के शोषण से पीड़ित हुई है, उसके प्रति कोई सहनभूति नहीं रख पाता।

भारत में न्याय को बहुत हल्के में और मज़ाक के तौर पर लिया जाता है। यहाँ कानून का प्रयोग होने से पहले दुष्प्रयोग शुरू हो जाता है। इस पर अगले अंक में और विस्तार से लिखूँगी......             

शुक्रवार, 22 जून 2018

न्याय+आलय


भाग 7

इस शृंखला के दूसरे भाग में मैंने शोषण शब्द का प्रयोग किया था। आज उसी के बारे में बताती हूँ। कचहरी में सिर्फ न्याय ही नहीं शोषण भी होता है। वो भी किसी एक व्यक्ति विशेष के साथ नहीं लगभग हर उस व्यक्ति के साथ जो न्यायालय से संबंध रखता है। सबसे नीचे से शुरू करें तो मुवक्किल और सबसे ऊपर की बात करें तो जज। सही मायने में सभी शोषक भी हैं और शोषित भी। कभी मुवक्किल वकील का तो कभी वकील मुवक्किल का शोषण कर लेता है। कभी जज वकील का तो कभी वकील जज का। अक्सर पेशकार, दफ्तरी, कार्यालय कर्मचारी, अर्दली, वादी और प्रतिवादी का शोषण कर लेते हैं तो कभी-कभी कोई वादी-प्रतिवादी भी उन पर भारी पड़ जाता है। यहाँ सभी उदाहरणों में शोषण का भाव केवल और केवल आर्थिक है। कभी वकील मुवक्किल से मनमाने पैसे ऐंठ लेता है, कभी मुवक्किल बिना फीस चुकाए ही अपना काम निकाल लेता है। ये ही सिलसिला सभी पदों पर आसीन लोगों और जनता के बीच चलता ही रहता है।

सारे जज इस प्रकार के शोषण की श्रेणी में नहीं आते। कुछ आते हैं। अब चूंकि भ्रष्टाचार हर विभाग में है तो कचहरी में भी है। पर फिर भी मेरा अनुभव है कि न्यायालय में भ्रष्टाचार का चरम नहीं है। हाँ, पर न्यायाधीशों को राजनीतिक दबाव और शोषण का शिकार होना पड़ता है। वादों की अधिकता और हाइ प्रोफ़ाइल केसेज़ में निर्णय देने का तनाव बहुत गंभीर होता है।

खैर कचहरी में जो सबसे ज़्यादा शोषित है वो है किसी भी वकील का जूनियर। छोटे शहर की कचहरी में कोई अधिवक्ता किसी को जूनियर रखते हुए उसे स्टाइपेंड नहीं देता। वैसे तो हमारी खुद की मजबूरी होती है वकालत के गुर सीखने के लिए एक गुरु की शरण लेना और जैसा कि सर्वविदित है या कहें कि पुरातन काल से प्रथा है कि गुरु से ज्ञान लेने के लिए उसे गुरु दक्षिणा देते हैं, ना कि ज्ञान लेने की प्रक्रिया में किए गए उसके निजी कार्यों के लिए पारिश्रमिक। तो बस गुरू की शरण में आओ और लग जाओ काम पे। अब होगा क्या कि गुरु जी, जो आपके आने से पहले तक खुद करते थे, वो अब चेले से कराएंगे। जैसे दरख्वास्त लिखना, अदालत में जमा करना, तारीखेँ लाना, संबन्धित अदालत के कार्यालय में जा कर वाद से जुड़ी सूचनाएँ इकट्ठी करना, पीने के लिए पानी लाना, इत्यादि-इत्यादि। खैर ये सब ज़रूरी है, सीखने के लिए और पानी पिलाना तो पुण्य का काम है।

पर इस सब में शोषण कहाँ है? अरे भाई! आते-आते ही शोषण शुरू थोड़े हो जाएगा। अब बात ये है कि उपरलिखित कार्य कोई जूनियर कितने दिन में सीख जाता है। 15 दिन या बहुत से बहुत 1 महीना। हाँ, सारी अदालतों और उनके कार्यालयों के नाम और रास्ते याद करने में थोड़ा समय और लगता है। बीच-बीच में न्यायालय परिसर में परिवर्तन भी होते रहते हैं। कब कौन सी अदालत का कमरा बदल जाएगा पता नहीं चलता, जब ढूंढते हुए पहुँचो तो कहीं ना कहीं मिल ही जाएगी। चलिये मान लिया कि दरख्वास्त लिखने का गुर सीखने में भी कुछ और समय लगता है। क्यूंकी इन प्रार्थनापत्रों के भी बहुतेरे प्रकार होते हैं। इन्हें रटा नहीं जा सकता, लिखते-लिखते ही अभ्यास होता है। सब मिला लो तो भी अधिकतम 6 महीने। 6 महीनों में कचहरी अपरिचित से अपनी-अपनी लगने लगती है। ज़्यादातर लोग पहचानने लगते हैं। पर इस सब में गुरु जी को ये समझ नहीं आता कि अब दरख्वास्तों और तारीखों से आगे बढ़ने का समय आ गया है। अब ये शिष्य के ऊपर भी निर्भर है कि उसने वो सीख पाया या नहीं जो गुरु जी ने सिखाया ही नहीं। कभी-कभी वाद पढ़ने का मौका लग ही जाता है, तो गुरु जी के दिमाग को पढ़ने का मौका मिल जाता है। उसके अलावा पोस्ट-मोरटेम रिपोर्ट्स, अस्पताल की जारी की गयी अन्य रिपोर्ट्स, किसी भी तरह का कागज़ी साक्ष्य, पुलिस रिपोर्ट्स आदि भी अगर पढ़ने का मौका मिलता रहा हो तो आपका वकील दिमाग चलता रहता है। पर गुरु जी को यकीन नहीं होता कि आप कितना और क्या सीख चुके हैं। उनका वही ढर्रा चलता रहता है। अगले कई सालों तक। किसी अदालत में जज के सामने बोलने का मौका तभी मिलेगा जब कोई ख़ास बात ना कहनी हो और गुरु जी वो बेख़ास बात खुद जा के कहने में रुचि ना रखते हों। ध्यान रहे कि इन 6 महीनों में जूनियर की कोई आमदनी नहीं होती है और कभी-कभी तो अपनी जेब से भी खर्च करना पड़ जाता है।

ये तो बात रही सिर्फ गुरु जी की, पर आपके गुरु जी के बस्ते के पास जितने वकील बैठते हों वो सब आपके गुरु स्वतः बन जाते हैं। नहीं-नहीं सिखाने के लिए नहीं, अपना-अपना काम कराने के लिए। फलाने कोर्ट में जा रही हो बिटिया, हमाई एप्लिकेशन भी लगा देना, और ये चार दरख्वास्तें और ले जाओ, इन्हें भी जगह पर जमा करती आना। डायरी देखा आना, फलाने केस में तारीख ले आना, वगैहरा। ये सब चलता ही रहता। अब शिष्य/शिष्या की मजबूरी है, सभी का हुक्म बजाना है। 3-3 मंजिलों पे बने ऑफिसों के चक्कर लगाने हैं। धूप में, गर्मी में, पसीने से लथपथ दौड़ लगाते रहना है, वो भी किसी और के काम के लिए जिसके लिए कोई पारिश्रमिक नहीं मिलना है।

जूनियर के शोषण का एक और बेहतरीन उदाहरण है उसका खर्चा करवाना। हर वर्ष ओथ कमिशनर (oath commissioner) के लिए नए वकीलों से आवेदन लिए जाते हैं और जो चुने जाते हैं वो 1 वर्ष के लिए ओथ कमिशनर के रूप में कार्यरत रहते हैं। ओथ कमिशनर का काम होता है एफ़िडेविट्स, बेल एप्लीकेशन्स, इत्यादि पर व्यक्ति का वेरिफिकेशन कर के टिकट और मोहर लगाना और अपने दस्त्ख्वत करना। इसके लिए उसे वो टिकट यहीं कचहरी से खरीदने पड़ते हैं (50-100 या अधिक रुपए के) और फिर जब भी कोई वेरिफिकेशन करना होता है तो उसके बदले उसकी फीस मिलती है (10-20 रुपये पर टिकट)। पर गुरु जी और आस पास वाले ना माने हुए गुरु भी वेरिफिकेशन करा जाते हैं, हस्ताक्षर-मोहर-टिकट सब लगवा जाते हैं पर फीस देना उन्हें याद नहीं रहता। मैंने तो अपनी वकालत के पहले साल में ही ये तमाशा देख लिया था। दोबारा ओथ कमिश्नर के लिए आवेदन ही नहीं किया।      

अब जूनियर शोषित लड़का है या शोषित लड़की इसका भी फर्क पड़ता है। मेहनत कराने के मामले में मेरी कचहरी के गुरु लड़कियों पर थोड़ा रहम रखते हैं। लड़कों के शोषण के बारे में बात करूंगी तो ये भाग समाप्त नहीं कर पाऊँगी.......  

रविवार, 17 जून 2018

न्याय+आलय


भाग 6
सेक्सिस्म (sexism), रेसिस्म (racism) और कास्टिस्म (casteism) ये सब तो भारत की प्रमुख विशेषताएँ हैं। इनके बिना भारत का अस्तित्व ही क्या है। सारे संसार से तुलना नहीं करुगी क्यूंकी मैं भारत में रहती हूँ, संसार के किसी अन्य देश में नहीं। ना ही देश छोड़ने या बदलने का कोई इरादा है। हाँ, तो जैसा मैं कह रही थी कि ये विशेषताएँ देश के प्रत्येक क्षेत्र में मिल जाती हैं। कोई भी डिपार्टमेंट इससे अछूता शायद ही हो। मुझे उम्मीद नहीं। तो फिर कचहरी कैसे इस सब से दूर रह सकती है। जी बिलकुल, मेरी कचहरी में भी सब मौजूद है।

सेक्सिस्म या जेंडर इनइक्वालिटी (gender inequality), सरल भाषा में कहूँ तो औरत और मर्द के बीच की प्रोफेशनल असमानता। यूं तो ये असमानता का कोई एक निश्चित क्षेत्र नहीं है फिर भी प्रोफेशनल पर खासतौर से ज़ोर इसलिए दे रही हूँ क्यूंकी यहाँ वकालत के संबंध में बात हो रही है। कमाल की बात है ना कि वैसे तो अक्सर पुरुष ये ताना मारते हैं कि औरतें बहस में बहुत तेज़ होती हैं और उनसे बहस में जीता नहीं जा सकता। हाँ, जो काफी हद तक ठीक भी है। तो फिर इसी तथ्य के मद्देनजर अगर औरत वकालत पढ़ के वकील बन जाती है तो इसमें इतनी तकलीफ की बात क्यूँ है और अचानक ही उसकी तर्क और बहस करने की क्षमता पर प्रश्ञ्चिंह क्यूँ लगा दिया जाता है।

मुझे नहीं पता कि बड़े शहरों की कचहरी में भी या उच्च और सर्वोच्च न्यायलाय में भी यही स्थिति है या नहीं। मैं वो जानती हूँ जो अनुभव मुझे अपने जिले की कचहरी से प्राप्त हुए हैं। यहाँ लगभग 2000 के आस पास वकील होंगे, हर साल बढ़ भी जाते हैं। ठीक संख्या तो मुझे नहीं मालूम। पर उसमें से लड़कियों की संख्या इतनी है कि गिन के बताई जा सकती है, और गिनने के लिए आपकी उँगलियों पे बने 30 निशान ही काफी हैं। शायद वो भी ज़्यादा ही हैं। महिला वकीलों की इतनी कम संख्या होने के अनेकों कारण है। एक तो अब ये प्रोफेशन सम्माननीय नहीं रह गया, दूसरा उन्नति और बढ़त का कोई स्कोप नहीं, तीसरा पुरुषों के वर्चस्व में अपना स्थान बनाने और जमने के लिए अद्वितीय शक्ति और सामर्थ्य की अवश्यकता है, और चौथा ये कि कचहरी में काम ही बस इतना होगा कि सालों-साल में केवल दरखास्त लगाना और तारीख़ लेना ही सीख पाएँगी। पांचवा ये कि पुलिसवालों, जजों, अर्दलियों, पेशकारों, और कार्यालय कर्मचारियों से साथ-गांठ करना सीखने में या तो सफलता नहीं मिलेगी या फिर जब तक मिलेगी तब तक आधी उम्र बीत गयी होगी। जुगाड़ सीखना, आदर्शों के खिलाफ जाना और मुवक्किल पे फीस के मामले में रहम ना खाना, ये सब गृहण करने में महिलाओं को थोड़ी तकलीफ होती है और इसलिए पुरुषों के मुक़ाबले वक़्त भी ज़्यादा लगता है।

2012 में जब मैंने कचहरी जाना शुरू किया तो सबसे ज़्यादा बुजुर्ग वकीलों की हेय दृष्टि का सामना करना पड़ा। छोटा शहर और जैसा कि मैंने कहा कि अब वकालत सम्माननीय नहीं रही तो लड़कियों को इस पेशे में बर्दाश्त करना पुराने लोगों के लिए खास तौर से मुश्किल होता है। ‘लड़ाका हो जाएगी, हर समय बहस करेगी, कोई शादी नहीं करेगा, ससुराल वाले परेशान रहेंगे’ आदि इत्यादि। ये सब सोच सामान्य सी बात है। ‘अब इत्ती-इत्ती लड़कियां खड़ी होंगी हमारे सामने बहस करने के लिए।‘ ये तो वाकई गंभीर समस्या है। अजब बात है कि जब नए और कम उम्र के लड़के आते हैं वकालत में तो इन्हीं बुज़ुर्गवारों को उनका स्वागत होता है और वो उन्हें आगे प्रशिक्षित करने के लिए तत्पर रहते हैं। जिन वकीलों के बेटे उनके अपने प्रॉफ़ेशन में नहीं आते उन्हें एक अच्छे जूनियर की तलाश और अपेक्षा होती है, जो उनका काम सीख के ना सिर्फ उनकी मदद करता रहे बल्कि उनकी अनुपस्थिति में उनका बस्ता भी संभाले। पर ये जूनियर एक लड़की कभी नहीं हो सकती। मज़े की बात ये है कि अक्सर लड़के वकीलों से काम सीख कर और तो और उनके मुवक्किल हड़प कर जल्दी ही अपनी दुकान सजा लेते हैं और चूंकि वकील साहब पहले ही बुजुर्ग हैं तो वो इसे ना तो रोक पाते हैं ना ही अपनी आवाज़ उठा पाते हैं। माजरा ये होता है कि फिर खुद से ज़्यादा उसकी दुकान चलवा रहे होते हैं।

ऐसा नहीं कि सारे ही वकील महिलाओं की वकालत के खिलाफ हैं, कुछ बहुत समर्थन भी करते हैं और सहायता भी। हेय दृष्टि के साथ-साथ मुझे भी अनेकों का सहयोग और समर्थन मिला। मेरे अपने सीनियर साहब ने मुझे पर बहुत विश्वास दिखाया और आस पास बैठने वाले बुजुर्ग वकीलों ने भी मेरे कार्यकाल के दौरान मुझे अपना भरपूर सहयोग दिया। चूंकि मैंने मात्र साढ़े चार वर्ष का ही समय दिया है अपनी वकालत को। पर अनुभव इतने कमाए हैं कि ता-उम्र के सबक मिल गए हैं। सबसे ज़्यादा पीड़ा देने वाली बात ये ही रही है कि केवल महिला अधिवक्ताओं को ही नहीं बल्कि महिला जजों को भी इस जेंडर असमानता का सामना करना पड़ता है। कोई समक्ष भले ही ना आलोचना करे या उनके ज्ञान के बारे में निर्णय ले पर उनकी आलोचना अधिवक्ताओं के लिए भरपूर मनोरंजन का साधन बनती है। यहाँ तक कि रौबदार और रसूकदार वकील भरी अदालत में उन्हें डोमिनेट करने का पूर्ण प्रयास करते हैं, मात्र इसलिए क्यूंकी वो एक महिला हैं। बड़ी साधारण सी बात है जब भी किसी नए उम्र के जज  की नियुक्ति होती है चाहे वो महिला हो या पुरुष, तो उसे काम और तरीका सीखने समझने में वक़्त लगता है। तब तक उनका सहयोग पेशकार और अधिवक्तागण भी करते हैं। पर यहाँ भी फर्क दिखाई देता है। पुरुष जजों की तुलना में महिला जजों को सहयोग से ज़्यादा दबाव बनाने जैसी परिस्थिति का सामना अधिक करना पड़ता है।    


शुक्रवार, 8 जून 2018

न्याय+आलय


भाग 5
डी जे वाले बाबू मेरा गाना बाजा दो, डी जे वाले बाबू मेरा गाना बाजा दो, गाना बाजा दो, गाना बाजा दो

अरे नहीं हमारी कचहरी में कोई डी जे वाले बाबू नहीं होते जो गाना बजाते हों। हाँ, पर हमारे यहाँ डी जे वाले साहब होते हैं। बड़े साहब यानी डिस्ट्रिक्ट जज (जिला जज)। हम इन्हें शॉर्ट फॉर्म में डीजे कहते हैं। अब गाना कुछ ऐसे गाया जा सकता है:

डी जे वाले साहब मेरा केस लगा दो, डी जे वाले साहब मेरा केस लगा दो, केस लगा दो, केस लगा दो

हाँ जी, साहब के यहाँ केस लगा है या नहीं, या लिस्ट में ही पड़ा है, देखना पड़ता है। डी जे आज केस सुनेंगे या नहीं, या बस तारीख दे देंगे क्या पता? डी जे साहब के पेशकार से बना के रखनी पड़ती है। जैसे शिव जी के कानों में बात पहुँचाने के लिए नंदी के कानों में अपनी मनोकामना कहनी पड़ती है बस कुछ वैसे ही डीजे तक अपनी मौखिक अर्ज़ी पेशकार के कानों से हो कर गुज़रती है।
यूं तो कचहरी बहुत बड़े वर्ग में फैली होती है। पर इतने कोर्ट रूम और उनके कार्यालयों में से जो सबसे बेहतरीन कमरा होता है वो है हमारे डीजे का। लंबा इतना कि लगे ईरान से तूरान तक फैला है। बाकी सारे कमरे इतने चुन्ने-मुन्ने होते हैं कि इसकी लंबाई ऐसी ही लगती है। कमरे में ढेर सारे पंखे लगे होते हैं, पूरे कमरे में हवा चाहिए ना। सबसे अच्छी बात ये है कि इस एक कमरे को शायद खास डिज़ाइन के साथ बनाया जाता है। बिलकुल ऐसी जगह पर जहां गर्मियों की तपन से ये बचा रहे। यानी पूरी कचहरी का ये सबसे शीतल कक्ष। चिलचिलाती धूप से जूझ कर इस कमरे में घुसते ही जन्नत का एहसास होता है।

इस एक कमरे की अपनी शान होती है। नए-नए वकील बनो तो यहाँ घुसने में ऐसा डर लगता है जैसे स्कूल में प्रिन्सिपल के कमरे में जाने से लगता है। कमरे में सबसे पीछे दीवार से लग कर लाइन से कुर्सियाँ और उसके आगे मेज़ रखी होती हैं जिनका प्रयोग केवल पुलिस अधिकारी करते है। सिपाही खड़े ही रहते हैं। आगे बढ़ने पर कुछ दूरी पे कमरे के ठीक बीचों बीच 10-15 कुर्सियाँ पड़ी होती हैं, वकीलों के बैठने के लिए। कमरे के बाएँ भाग में सरकारी वकील की कुर्सी और मेज़ होती है और दायें भाग में एक लंबा सा कटघरा। जिसमें एक साथ 4-5 अपराधी खड़े हो सकते हैं। कमरे में सबसे आगे होता है एक ऊंचा सा प्लैटफ़ार्म, जिस पर एक और भी ऊंचा सा डाइस। उस डाइस की बाएँ तरफ स्टेनो और दायें तरफ पेशकार की कुर्सी, और दोनों के बीच में बड़े जज साहब की ऊंची से कुर्सी। डाइस पर ढेर सारी फाइलें, पेन स्टैंड, स्टैंड वाली दफ्ती और बाकी कुछ कोरे कागज़। पीछे की दीवार पर गांधी जी की तस्वीर भी होती है। बाकी कोई तस्वीर होगी या नहीं, या किस की होगी ये उस समय की राजनीतिक परिस्थिति पर निर्भर करता है। होने को तो पंडित नेहरू और जिन्ना की भी तस्वीर हो सकती है। सब कुछ बिलकुल वैसा, जैसा कि हम किसी भी फिल्म में देखते हैं। पर वो न्याय की देवी की मूर्ति और वो लकड़ी का हथोड़ा यहाँ भी नहीं हैं। हाँ, एक अर्दली भी होता है जिसका काम होता है केस के वादी और परिवादी के नाम की पुकार लगाना और इस बात का ध्यान रखना कि अनावश्यक भीड़ कमरे के अंदर प्रवेश ना करे।

पूरी कचहरी में बस ये ही एक अनुशासित जगह मालूम पड़ती है। जनता के साथ-साथ वकील भी यहाँ अनुशासित रहते हैं। बेवजह की बातचीत नहीं, किसी तरह का शोर नहीं, जनता की भीड़ नहीं। डीजे के सामने अधिवक्ता अनावश्यक बहस भी नहीं करते। जैसे अन्य अदालतों में हो जया करती है। ये फर्क कुछ ओहदे का भी होता है। वैसे भी यहाँ तक सारे वकील नहीं आते, क्यूंकी कुछ चुनिन्दा केस ही डीजे कोर्ट तक आते हैं।

कुर्सी की भी अपनी ताकत, सम्मान और रौब होता है। जितनी ऊंची कुर्सी उतना ऊंचा रुतबा। पर सेक्सिस्म (sexism) की मार यहाँ भी पड़ती है। हर अदालत में ऐसा होता है या नहीं मुझे नहीं पता पर मैंने यहाँ देखा है। डीजे अगर महिला है तो  उसकी क्षमता और समझ को अधिवक्ता कम ही आँकते हैं। उस कुर्सी का सम्मान करना उनकी मजबूरी है अन्यथा वो इसी प्रयास और आशा में रहते हैं कि कोई पुरुष डीजे आ कर कार्यभार संभाले। जी हाँ, डीजे का स्थानांतरण कुछ हद तक अधिवक्ताओं के हांथ में भी होता है।

सेक्सिस्म (sexism), रेसिस्म (racism), कास्टिस्म (casteism) ये सब भी कचहरी, अधिवक्ता और अदलतों से दूर नहीं है। इसके बारे में विस्तार से फिर कभी।


सोमवार, 4 जून 2018

न्याय+आलय


भाग-4

गर्मी की लू और पसीने की बू, काले कोट का वज़न और पसीने की टपकन, चारों तरफ टाइपराइटर की टक-टक और सब्जी मंडी जैसी भगदड़, ये सब एक वकील की रोज़मर्रा जिंदगी का हिस्सा है। सिर्फ गरमियाँ ही नहीं बरसात और सर्दी भी कम ज़ुल्म नहीं ढाती हम पे। खुले में टपकते हुए टीन शेड के नीचे, तड़ातड़ बरसते पानी में फाइलों से खोपड़ी बचाते हुए सीट से कोर्ट रूम तक जाने की रेस हर वकील को फिट रखती है। जो बुजुर्ग हैं, दिव्याङ्ग हैं या फिर अपने वज़न से परेशान हैं वो अपने-अपने जूनियर्स को दौड़ा दिया करते हैं और खुद धीरे-धीरे पीछे-पीछे चलते जाते हैं। वो क्या है ना हर कोर्ट का टाइम फ़िक्स्ड होता है सुनवाई का। वक़्त पे पहुँचों, पुकार पे अपनी बात न कह पायी तो तारीख आगे बढ़ जाएगी।

पर सब के पास जूनियर्स नहीं होते तो उन्हे थोड़ी दिक्कत हो जाती है, या तो समय से पहले ही सीट से उठ लो या किसी और वकील की मदद लो। पर मदद तो सब एक दूसरे की कर ही देते हैं। दिव्याङ्ग, बुजुर्गवार और वज़नदार वकीलों की तकलीफ तो जज साहब भी समझते हैं।

सर्दी का अपना अलग मज़ा होता है साहब। जहां गर्मी में चिलचिलाती धूप और तीखी गरम हवाएँ वहीं सर्दी में कड़ाके की सर्दी, कोहरा और हड्डी फाड़ देने वाली शीतलहर। जितने भी कपड़े पहन जाओ कम ही मालूम पड़ते हैं। पुराने सेट्टल्ड और रुआबदार वकील जिनके पास अपने केबिन होते हैं वो तो हीटर भी लगा लिया करते हैं और उनके सहारे आस पास के वकीलों का भी भला हो जाता है। सब अचानक से मिलनसार जो हो जाते हैं और आखिर केबिन में आ कर दुआ सलाम करना तो बनता ही है। अब आए हैं तो कुछ देर बैठेंगे भी। जजों को तो हीटर सुविधा उपलब्ध होती ही है तो उनके साथ पेशकार और अर्दली का भी वक़्त सही कट जाता है।

वकालत के सारे आनंद तो 80% वकील लेता है जिसके पास सिर्फ एक टीन शेड, दो कुर्सियाँ, एक छोटी सी बेंच या ज़्यादा हुआ तो एक तखत होता है। 4 बम्बूओं पे खड़ा वो टीन शेड उसकी जिंदगी का एक अहम हिस्सा होता है। अगर कचहरी में वो एक छोटी सी जगह उसे मिल जाए और वो बम्बू पे अपना तम्बू गाड़ दे तो समझो कि उसने वकालत कि अपनी पहली सीढ़ी चढ़ ली।

फिर साल दर साल इसी टीन की छत के नीचे उसकी जिंदगी के दिन गुज़रते हैं, यहीं वो वकालत के सारे लेवेल्स पार करते-करते बिगिनर से एक्सेलेन्स तक पहुंचता है। वकालत एक ऐसी कला है जिसमें मंझने में बरसों लग जाते हैं। जो सारे गुर सीख जाता है वो आसमान की ऊँचाइयाँ भी छू लेता है और जो ना सीख पाया वो बिगिनर का बिगिनर ही रह जाता हैं। ये भी एक जुनून है साहब लग गया तो अर्श ना लगा तो फर्श।