भाग-3
उस दिन एक
बुज़ुर्ग वकील साहब आकर सीट पे बैठे और बतियाने लगे। “बेटा नयी हो लगता, कबसे आना
शुरू किया, कहाँ से आती हो, कहाँ से लॉ किया है? अजी साहब धाराप्रवाह प्रश्न पे
प्रश्न। समझ नहीं आया कि सिस्टेमैटीकली जवाब दें या कहीं से भी। कुछ बोल पाते उससे
पहले ही वो फिर बोल पड़े “अरे वकील साहब एक ज़माना था जब वकीलों का बड़ा रुतबा हुआ
करता था, लोग बड़ी इज्ज़त दिया करते थे, 5-5 किलो देसी घी क्लाइंट ऐसे ही बिना मांगे
घर पहुँचा जाते थे। अब तो कोई चाय भी नहीं पिलाता उल्टा गुटके के पाउच में निपटाने
का प्रयास करता हैं। अब बताओ जो गुटका न खाता हो उसका तो वो भी गया”। सुन के मुझे
भी लगा कि गुटका तो मैं भी नहीं खाती फिर याद आया की मुझे तो बाहर चाय भी पीना
पसंद नहीं। चलो फिर कोई बात नहीं वैसे भी मुझे मेरे क्लाइंट से ऐसी उमीदें नहीं है।
पर इस सब में उनका मुझे वकील साहब कह के संबोधित करना बड़ा अच्छा लगा। ये अच्छा है
यहाँ आप लड़का हों या लड़की, कम उम्र हो या उम्र दराज़ सब वकील साहब ही होते हैं। चलो
आपसी इज्ज़त तो है!
“और बताइए वकील
साहब बिटिया ये कैसी है सीखने में” इस बार उनका सवाल मेरे सिनिअर से था। हाँ जी!
कचहरी आके पहले किसी सिनिअर की छत्र छाया में शरण लेनी पड़ती है। बिना कमाई उसका
सारा काम संभालना पड़ता है। फिर ये आप पर निर्भर है कि कितने दिन लगते हैं सारी
मठेती सीखने समझने में, क्यूंकि वकालत तो पढ़ के ही आये हैं, तो सीखने के लिए बस
जुगाड़ टेक्नोलॉजी है और मठेत कैसे बना जाये ये है। “सब सिखा दीजियेगा बिटिया को अब
यही भविष्य हैं हमारा, इन्हें ही सब संभालना है आगे, वैसे भी लड़कियां ही आजकल
अच्छी निकल रहीं, सब सीख लेती हैं जल्दी-जल्दी, लड़के तो साले निकम्मे ही निकल रहे”
उनका दर्द छलक पड़ा। शायद वो भी अपने बेटे से त्रस्त होंगे। खैर इतने सवाल पूछ के,
एक का भी जवाब लिए बिना और अपनी सारी बाते कह के बुज़ुर्गवार आगे बढ़ गये दूसरी सीट
की तरफ। मै और मेरे सिनिअर बस मूक दर्शक बने बैठे रहे और देखते रहे।
पहला अनुभव था
ये, फिर अक्सर या कहें रोज़ ही ऐसा कुछ घटता रहा। वकील तो वकील मुव्वाक्किल भी बड़े
सवाल करते हैं। गूगल का ज़माना है भाई सारी विधि पढ़ के आते हैं फिर टेस्ट करते हैं
कि वकील हमारा सब जानता है कि नहीं। मजाल है आप बहलाने का प्रयास करें आज का
मुवक्किल सब जनता है। तुरंत पकड़ लेगा, और तो
और उसकी जानकारी से कम या ज़्यादा धाराओं का ज्ञान आपने उसे कराया तो भी बिगड़ जाएगा
क्यूंकी गूगल ने उसे विस्तार में कुछ नहीं समझाया है उसे वही धारा या नियम पता है
जो उसने खोजा और गूगल ने उसे बताया। अब गूगल बाबा भी तो कोई खाली नहीं बैठे हैं जो
खामखा ही सारी जानकारी उड़ेलते रहें जो उनसे पूछी ही नहीं गयी। ऐसी स्तिथियों में
जब कोई अधिवक्ता फँसता है तो फिर वो अपने अस्त्र चलाना शुरू करता है। आखिर उसके
ज्ञान के आगे तो गूगल्या के आए हुए मुवक्किल का अधूरा ज्ञान कहाँ तक टिक पाएगा।
उसे विस्तार से मुद्दे की गहराई में ले जा कर समझाना पड़ता है, धारा के अंतर्गत उपधारा, उसके अंतर्गत नियम, उसके अंतर्गत उपनियम और उसके भी अंतर्गत जो-जो आता है सब समझाना पड़ता है
वो भी ऐसे कि या तो वो समझ जाए या फिर इतना समझ जाए कि कुछ नहीं समझ सकता और कट
ले।
पर इतना गहराई
में कुछ एक ही अधिवक्ता जाते हैं क्यूंकी अक्सर हम बहुत व्यस्त होते हैं, और जब इतना समय नहीं होता तो फिर हम अपना ब्रह्मास्त्र चलाते हैं- “भक्क
साले! आया बड़ा वकील बनेगा......जा फिर लड़ ले अपना केस खुद ही, ले जा ये कागज़ सारे.....दिखाई मत दियो दुबारा....” यकीन मानिए ये वार कभी
खाली नहीं जाता। आखिर ब्रह्मास्त्र है खाली कैसे जा सकता है। मुवक्किल दिमाग का
दही करना बंद करते हुए भाग जाएगा, हो सकता है एक-दो गाली
बकता हुए जाए पर चला जाएगा।
अरे! नहीं-नहीं
परमानेंट नहीं गया। अगली तारीख पे लौटना तय है। वकील बदलना कोई आसान प्रक्रिया
नहीं। वैसे भी अगली तारीख पे न वकील साहब पुरानी बात को ले कर गुर्राएंगे और
मुवक्किल तो वैसे भी अब ज्ञान नहीं बांछेगा।
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इस उम्मीद में कि अगले संस्करण में कुछ अदालतों के बारे में भी मिलेगा
जवाब देंहटाएंजी बिलकुल, अगले संस्कारण में ना सही पर आगे ज़रूर मिलेगा। ये सिरीज़ लंबी चलेगी।
हटाएंबहुत ही दिलचस्प ढंग से साझा कर रही हैं आप अपने अनुभव । पढ़ने वाले जैसे आपके शब्दों के माध्यम से कोर्ट के परिसर में झाँक रहे हैं और देख रहे हैं कि अंदर क्या होता है ।
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