भाग-1
उस दिन सोमवार था
शायद,
वो मेरा पहला दिन था। अक्टूबर का महीना, न हल्की
न तेज़ धूप पर गर्मी थी, और मैं अपने सफ़ेद सलवार सूट पे दुपट्टे
की प्लेटें बना किसी स्कूली बच्ची की तरह कचहरी पहुंची थी। अभी काला कोट नहीं बनवाया
था। वक़ालत पढ़ने के बाद यहीं तो आना होता है। बाहर से देखने पे ये जगह बड़ी शानदार और
रुआबदार होती है। अंदर घुसते ही याद आ जाती है पुरानी कहावत- "जनती लुगाई और बनती मिठाई कभौं न देखो"। जहाँ से
नज़र दौड़ाओ और जहाँ तक दौड़ाओ बस चार बम्बूओं पर सधी टीन की छतें और उनके नीचे बैठे काले
कोट। हाँ दूर से बस काले कोट ही नज़र आते हैं। यूँ लगता है मानो चलते फिरते काले कोटों
का शहर है जैसे।
मन में बड़ी कल्पनायें
थी कोर्ट रूम की। आर्डर-आर्डर करते लकड़ी के एक छोटे से गोले पे बड़ा सा हथोड़ा ठोकते, ऊँची सी कुर्सी, सिंघासन जैसे डाइस के पीछे बैठे जज साहब मिलेंगें। सामने होंगें
लम्बे काले चमकदार गाउन पहने दो इम्प्रेस्सिव से वकील। उनके अगल बगल बने दो लकड़ी
के कटघरे। पीछे लगी कुर्सियों पर आम जनता की भीड़. यही सब तो देखते आये हैं हम अब
तक फिल्मो में। कोर्ट रूम का कुछ ऐसा ही चित्र अंकित था मेरे मन में भी और शायद सबके
मन में होता होगा। सिर्फ तब-तक, जब-तक खुद उस जगह के करीब से दर्शन न किये हों।
बस तो हमने भी
वकालत पढ़ ली कि साहब बड़ा मज़ा आएगा न्याय की देवी के आँखों पर पट्टी, एक हाथ में
तराजू, और दूसरे में तलवार क्यों है पता चलेगा। असल में करीब से देखने पे ये देवी
कैसी लगती है बड़ी जिज्ञासा थी। ये काले कोट के पीछे का राज़, ये सफ़ेद वर्दी की
वजह और इन सब में सबसे आकर्षक जज साहब का वो हथोड़ा। पर किसी ने सही कहा है दूर के
ढोल सुहावने होते हैं. ये सब जिज्ञासाएं गूगल कर दूर कर लेते तो ठीक रहता. पर नहीं
कूद पड़े, जाने क्यों काला सफ़ेद खींच लाया हमे यहाँ।
खैर अब आये तो
आये तब जाना कि फ़िल्में सचमुच बहुत धोका देती हैं. हाय राम! ऐसा तो कुछ भी नहीं है
यहाँ। हाई कोर्ट में होता हो शायद. मेरी कचहरी (जिला न्यायालय) में तो किसी भी
कोर्ट रूम में कटघरे ही नहीं है, ऐसे ही वकील साहब मुलजिम को अपने बगल में खड़ा कर
लेते है और कोई गीता/कुरान/बाइबिल भी नहीं मंगाई जाती कसम उठाने को। वकील साहब या
कभी अर्दली ही कह देता है मुलजिम से “चलो कसम खाओ जो कहोगे सच कहोगे”। अरे! ये भी
कोई बात हुई कुछ न सही अम्मा की ही कसम खिलवा दो! (मेरे
मन में ये ख़्याल हर बार आता है) और जज साहब यकीन कर लेते है
की ये जो अब बयान देगा वो सच ही होंगे, और तो और वो हथौड़ा भी
मिसिंग है।
वकालत की असली
सच्चाई कुछ फुट के टीन शेड के नीचे दो कुर्सी, एक बेंच और एक मेज़ डाल के बैठने और
लू, बरसात और ठण्डी कड़कड़ाने वाली हवाएं झेल के समझ आई। 10-10 रुपये के लिए
मुवक्किलों से कितनी झिक-झिक करनी पड़ती है. उसपे भी सुनना पड़ता है “वकील साहब आप
काम नहीं करते हमारा बस मेहनताना मांगते हैं”। यही मुवक्किल पेशकार और क्लर्क को
बड़ी ख़ुशी-खुशी ऊपर की या कहूँ मेज़ के नीचे की कमाई करा आते है।
न्यायलय यानी
न्याय का घर जहाँ लोग न्याय की अपेक्षा से आते हैं यहाँ न्याय होता होगा कभी, अब
अन्याय ज्यादा होता है। सब के साथ चाहे वकील हो या मुव्व्क्किल। न्याय की देवी की
आँखों पर पट्टी इसलिए है कि कुछ भी देखो मत, जो भी घट
रहा है, सही या गलत, टेबल के ऊपर या टेबल के नीचे। हाथ में तराजू इसलिए है कि
जिसका पलड़ा भारी हो उसकी तरफ झुक जाओ, और तलवार इसलिए कि पहले कमज़ोर और पीड़ित का
पत्ता काटो। काला कोट हम इसलिए पहनते हैं कि थूक भी जाओ हम पर तो दिखे ना, और सफ़ेद
वर्दी इसलिए कि हम दिखावा कर सके कि कितने शांतिप्रिय और सात्विक है।
ये सब मेरे निजी
विचार और अनुभव हैं। क्यूंकि मेरी कचहरी कुछ ऐसी ही है। यहाँ अब पीड़ित कम और पीड़ा
देने वाले ज्यादा आते है न्याय मांगने कि हमें पीड़ा देने का अधिकार दो या हमने पीड़ा
दी तो कुछ गलत नही किया. 100 में से 10 होते हैं सच्चे न्याय के हक़दार पर अफ़सोस
बाकि 90 उनका समय नष्ट करते हैं।
खैर कुछ भी हो
मेरी कचहरी में रौनक हमेशा रहती है चाहे किसी के पास काम हो या नहीं, चाय-पकौड़ी
खाने ही चले आते हैं सब और अगर कुछ वकील ज्यादा व्यस्त लग रहे हैं, कुछ अन्य बेकारों को
तो, झट से हड़ताल का कोई मुद्दा भी खड़ा कर लिया जाता है। “लो भाई फलाने कारण
से आज सारे अधिवक्ता न्यायिक कार्य से विरत रहेंगे”, “मौजा ही मौजा।” “कुछ भी हो
पर एका बहुत है वकीलों की कौम में” हाँ! ऐसे ही बात करते है सब. हमारी भी एक अलग
कौम होती है..............................
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बहुत खूब
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंहास्य व् व्यंग्य के साथ लिखी गयी कचहरी
जवाब देंहटाएंआपकी इस विस्तृत विवेचना का यह प्रथम ही भाग है । अभी मैं इसके आगे के सारे भाग और पढूंगा । सच्चाई ही सच्चाई है इसमें । सच ही हिन्दी फ़िल्में बहुत धोखा देती आई हैं जनता को कम-से-कम इस संदर्भ में । जस्टिस सांवरमल अग्रवाल ने एक बार इस संदर्भ में कहा था - 'जितना फ़र्क फ़िल्मों और वास्तविक जीवन में होता है, उससे भी कहीं ज़्यादा फ़र्क फ़िल्मी और वास्तविक अदालतों में होता है ।'
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