भाग-2
... जी हाँ
वकीलों की भी एक कौम होती है। काला कोट बनवा लिया है अब तक, कुछ दिन गुज़ार लिए है
मैंने मेरी कचहरी में। बस कुछ ही दिन काफी रहे सबसे ज़रूरी बात समझने में कि हमारी
भी एक कौम होती है। वैसे ही जैसे सबकी होती है। यहाँ कौम का मतलब किसी धर्म या
जाति के लोगों से नहीं है बिलकुल। कौम जैसे डाक्टरों की, इंजीनियरों की, सफाई
कर्मियों वगैहरा-वगैहरा की. पर हम बाकियों जैसे बिलकुल नहीं हैं। हो भी नहीं सकते
क्यूंकि “हम तो हम है बाकी सब पानी कम हैं”। वैसे हम सबसे इंटेलेक्चुअल कम्युनिटी
को बिलोंग करते हैं. क्यूंकि हम कम्पलसरिली डबल ग्रेजुएट होते हैं। हाँ! और किसी
को कुछ बनने के लिए दो बार ग्रेजुएशन नहीं करनी पड़ती. एक वकील ही होता है जिसे
वकालत पढने के लिए भी पहले से ग्रेजुएट होना पड़ता है। खैर बाकी सब अपना-अपना काम
करते हैं। हम अपना काम कम करते हैं उसके अलावा और बहुत कुछ करते हैं। जैसे मठेती,
बकलोली, दलाली, चमचागिरी, दबंगई, इत्यादि-इत्यादि हमारी मुख्य विशेषताएं होती हैं।
वकालत तो हमारा साइड प्रोफेशन है।
हाँ! तो बात हो रही
थी कौम की। कैसे बताऊँ? उधाराणार्थ जैसे हमारे शहर में बन्दर बहुत हैं। टोली की
टोली घूमा करती है पुरे शहर में। अक्सर छतों पर जमावड़ा होता है इनका. ये मुख्यतः पानी की टंकी के ढक्कन तोड़ कर उनमे डुबकी लगाने, पेड़-पौधे उखाड़ के फेंकने, कपड़े
फाड़ने, इत्यादि विनाशकारी मकसदों से ही आते हैं। फिर इन्हें डंडों, गुलेल, एयर गन,
झाड़ू आदि या जो भी संसाधन मिले उसकी सहायता से खदेड़ा जाता है। पर सिर्फ खदेड़ सकते
हैं चोट नहीं मार सकते। मारना तो किसी भी जानवर को नहीं चाहिए पर कहीं धोके में
डराते-डराते एयर गन चल गयी या गुलेल लग गयी, या डंडा जड़ गया और एक भी बन्दर चीख
गया तो समझ लीजिये आपका आखिरी समय निकट है। उस एक बन्दर की चीख पर सैकड़ों, अनेकों अन्य आकर वहीं इकठ्ठा हो जाएँगे कुछ ही पलों में। इस दृश्य की
कल्पना भी न कीजिये। कुछ कल्पना करना है तो ये कीजिये की आप वहां न फंसे हों और
दौड़ कर किसी दरवाज़े के पीछे जा छुपे हों। बस बिलकुल ऐसे ही होतें हैं हम
अधिवक्तागण भी.
अरे! तारीफ कर
रही हूँ। हम भी बहुत सारे हैं और तो और कचहरी के अन्दर सब एक जैसे ही दिखते हैं।
एका इतना कि मजाल है कोई गलत बात तो कर जाये, हमसे बड़ा दबंग जो बन के दिखाता है या
हमे वकालत पढाता है तो बस एक की आवाज़ पर सारे इकट्ठे हो जाते हैं। फिर चाहे वो
क्लाइंट हो या कोई पुलिस वाला, मठेत हो या दबंग, सही हो या गलत, नेता हो अभिनेता
हो, हमारे लिए बस टारगेट है (बुजुर्ग, बच्चों और औरतों को हम माफ़ कर देते हैं), और
मजेदार बात ये है कि जैसे-जैसे घटना की जानकारी मिलती रहती है वैसे वैसे हम
दूर-दूर से आके घटनास्थल पे इकठ्ठा होते रहते है। वो क्या है न कचहरी बहुत बड़ी
होती है, टाइम लगता है एक सीट से दूसरी सीट तक पहुँचने में...
पर ऐसा बिलकुल
नहीं है कि हममे सहृदयता या सहयोग इत्यादि गुणों की कोई कमी है। आफत में पड़ने वाले
अधिवक्ताओं की भी हम सहायता कूद के करते हैं। बुरे समय या मृत्यु जैसी आपदाओं में
भी हम अपने अधिवक्ताओं और उनके परिवारों का संबल बनने का पूर्ण प्रयास करते हैं।
बेटियों के विवाह में अधिवक्ता पिता का दूसरे अधिवक्तागण बिना मांगे, बिना कहे
कार्यभार सँभालते हैं। यहाँ स्पष्ट करूँ कि एक दूसरे के साथ खड़े होने के लिए या मदद
करने के लिए कभी हमारी जाति बीच में नहीं आती। हालाँकि “जाति कभी नहीं जाती” पर ये
ही हमारी कौम की बड़ी विशेषता है कि “अधिवक्ता का कोई धर्म विशेष नहीं होता वो मात्र
अधिवक्ता है”।
“अरे बिटिया ज़रा
ये दरख्वास्त लगा आना सी.जे.ऍम. कोर्ट में” बगल वाले बुज़ुर्ग वकील साहब अक्सर
हुक्म फरमा देते हैं, उन्हें दमा है बुज़ुर्ग भी हैं इसलिए अपने छोटे मोटे काम मुझसे
करवा लेते हैं। क्या करूँ मना भी नहीं किया जाता। हालाँकि ये कोई बड़ी बात नहीं पर
दुनिया ऐसी है कि “ऊँगली पकड़ाओ तो पोंचा पकड़ती है”। एक-दो बार ख़ुशी से कर दो उनका
काम तो तीसरी बार से उनकी आदत बन जाता है और फिर अपना काम छोड़ उनका पहले करना पड़ता
है।
ये भी एक प्रकार
का शोषण है। अब शोषण तो हर जगह होता है। बस रूप अनेक हैं। पर भई हम सहयोगी
प्रवत्ति के हैं तो......
कटु सत्य का उद्घाटन किया है आपने । साँस रोककर पढ़ा है मैंने ।
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