गुरुवार, 17 जनवरी 2019

न्याय+आलय


अंतिम भाग

मेरी कचहरी के पिछले भागों में काफ़ी कुछ वो लिखने का प्रयास किया जो मैंने अधिवक्ता के रूप में अपने चार साल के कार्यकाल के दौरान अनुभव किया। फिर भी ये नहीं कह सकती कि सब कुछ लिख दिया। उन चार सालों को मैंने समेट कर एक श्रंखला का रूप देने का प्रयास किया। कितनी सफल हुई कह नहीं सकती। पर हाँ! ये मेरा अनुभव था, मेरा दृष्टिकोण था। कचहरी और बहुत कुछ है, और बहुत कुछ हो सकती है। अच्छे-बुरे, खट्टे-मीठे और कड़वे अनुभवों से रची ये सीरीज़ मैं आज इस अंतिम लेख के साथ यहीं ख़त्म कर रही हूँ।

पहली जनवरी को अपने सीनियर साहब से मिलने उनके घर गयी। नए साल की शुभकामनायें भी देनी थीं और उनका स्वास्थ्य भी जानना था। हमेशा की तरह वो अपनी सेहत के प्रति लापरवाह ही दिखे। मेरा उनका जूनियर बनने से उन्हें कोई सहायता मिली हो या नहीं पर उन्हें इतना आराम ज़रूर था कि तारीखें लेने और प्रार्थना पत्र लगाने के लिए उन्हें एक कोर्ट से दूसरे कोर्ट भागना नहीं पड़ता था और ऑफिसों के चक्कर लगाने के लिए तीन मंज़िल नहीं चढ़नी पड़ती थी। कचहरी छोड़ते हुए मुझे सबसे अधिक इसी बात का अफसोस था कि एक बार फिर उन्हें ये सब खुद ही करना होगा।

मैंने वकालत पढ़ते समय कभी नहीं सोचा था कि कभी कचहरी में बैठूँगी या प्रेक्टिस करूंगी। वकालत की पढ़ाई मेरे लिए बस एक और डिग्री जैसी थी। फिर भी जीवन में ऐसे बदलाव आए कि मैंने वकील के रूप में अपना रेजिस्ट्रेशन भी कराया, ऑल इंडिया बार एसोसिएशन का इम्तिहान भी पास किया और प्रेक्टिस भी की। या कहूँ करने की कोशिश की। पर कभी खुद को वहाँ से जोड़ नहीं पायी। कभी-कभी खुद को ही ढूंढने के लिए बहुत भटकना पड़ता है। अनजानी, अनमनी राहों पर चलना पड़ता है। परिवर्तन जीवन में एक अच्छी बात होती है। वकालत में मन नहीं लगा और समझ आया कि अपने में वकीलों वाली कोई बात नहीं तो फिर अपनी राह बदल ली।

2000 से ऊपर वकील होगा इस समय यहाँ जिला कचहरी में। कितनों की प्रेक्टिस चलती है बताना बहुत मुश्किल है। फिर भी वकील रोज़ अपने बस्ते पर अपनी कुर्सी पर बैठा मिलेगा। एक साधारण वकील अपने जीवन में ज़्यादा कुछ संपत्ति जमा नहीं कर पाता। अधिकतर के लिए उसका घर चलाना, बच्चों को पढ़ाना ही एक मुश्किल प्रक्रिया होती है। फिर भी पूरी कचहरी में वकील एक दूसरे से कभी अपने जीवन का रोना रोते नहीं दिखेंगे। जो जुगाड़ू होते हैं वो कैसे ना कैसे पैसा बनाने का तरीका जानते ही हैं, जिनका नाम हो जाता है उन्हें मुवक्किल ढूँढना नहीं पड़ता। जो बस तफरी करने के लिए बैठे हैं उन्हें किसी बात की चिंता नहीं होती। बस बुरा उनके लिए लगता है जो वाकई ज्ञानी हैं, अनुभवी हैं, तमीज़दार और अपने पेशे से ईमानदार हैं उन्हें उनके लायक काम और उपयुक्त पारिश्रमिक नहीं मिल पता।

मेरी सीट के पास ही के.सी.सक्सेना वकील साहब बैठा करते थे। बहुत अच्छे वकील थे। बहुत ज्ञान और अनुभव था उन्हें वकालत का। बहुत सुलझे हुए और संयमित व्यक्ति थे। सीनियर साहब से पता चला पिछली अक्तूबर में वो चल बसे। कोई ऐसी बीमारी हो गई थी जो समय रहते डॉक्टर पकड़ नहीं पाये और उनका देहांत हो गया। उनकी तीन बेटियाँ हैं। मात्र एक का विवाह कर पाये थे। अपने पीछे अपनी पत्नी और दो बेटियों का उत्तरदायित्व छोड़ गए। बहुत साधारण व्यक्ति थे। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे और उनके परिवार को शक्ति। मुझे नहीं पता उनका परिवार आगे अपना जीवन किस दिशा में और कैसे ले जाएगा। एक वकील सारी उम्र काम करता है पर कुछ जोड़ नहीं पाता। बार एसोसिएशन्स से भी कोई खास आर्थिक सहायता प्राप्त नहीं होती। जीवन बीमा जिसकी पॉलिसी कभी मिलती नहीं। अनुदान जिसकी बस घोषणा ही होती है। कोई पेंशन नहीं, पी.एफ. नहीं।

ऐसा नहीं कि इसके पहले मैंने किसी अधिवक्ता की मृत्यु का समाचार नहीं सुना। पर के.सी. वकील साहब कुछ अलग थे। सब के जैसे नहीं। पाता नहीं क्यूँ ईश्वर को भी अच्छे लोगों की ही ज़रूरत ज़्यादा है। जीवन और मृत्यु ही संसार का चक्र है और प्रत्येक मानव को इस चक्र से गुजरना है। एक साधारण से वकील की मृत्यु से किसी को क्या फर्क पड़ता है। फर्क बस इस बात से पड़ता है कि वकील मात्र धनोपार्जन के लिए ही वकालत नहीं करता, जाने-अनजाने वो एक वकील, असंख्य पीड़ित लोगों की सहायता भी करता है। ईश्वर ने इस धरती पर मनुष्य को विभिन्न पथों पर दिशा निर्देश देने के लिए और आवश्यकता पड़ने पर सहायता देने के लिए माध्यम सुनिश्चित किए हैं। उन्हीं कई माध्यमों में से एक वकील भी है।

आशा करती हूँ आपको कुछ अच्छा पढ़ने को मिला हो, कुछ नया जानने को मिला हो या थोड़ा सा मनोरंजन हुआ हो। जो भी हो इस शृंखला को अपना समय देने के लिए मेरे पाठकों का धन्यवाद। इसे यहीं समाप्त करते हुए मैं यहाँ से विदा लेती हूँ।
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शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

न्याय+आलय


भाग 13

लंबी अस्वस्थता और आँखों में परेशानी के चलते पिछले 1 महीने से कुछ लिखना नहीं हो पाया। आँखों की तकलीफ अपाहिज जैसा एहसास करा देती है। दिमाग में अनेकानेक विचार और भाव कौंधते रहे पर इतनी मजबूर थी कि शब्दों को लेखन के रूप में उतार नहीं पायी। पर आज करवाचौथ के पावन पर्व पर मेरी कचहरी का भाग 13 लिखना अति महत्त्वपूर्ण है। आँख में दर्द है पर फिर भी लिखना तो बनता है। क्यूंकी एक मज़ेदार किस्सा है मेरे पास जो मैं मेरे पाठकों से अवश्य ही साझा करना चाहती हूँ और आज ना किया तो कल इसका महत्त्व समाप्त हो जाएगा।

तो बात कुछ साल पहले की है। करवाचौथ का ही दिन था। मैं रोज़ की तरह कचहरी पहुंची थी। ये मौसम और समय ऐसा होता है कि गर्मी कम हो जाती है और माहौल खुशनुमा सा होने लगता है। कचहरी इसी मौसम में सहनीय हो जाती है। ना ज़्यादा गर्मी, ना ज़्यादा सर्दी, ना बारिश की किच-किच। करवाचौथ के दिन का कुछ अपना अलग ही अंदाज़ होता है। सिर्फ शादी-शुदा औरतें ही नहीं पुरुष भी सजे-सजे से और खुश-खुश से दिखाई जान पड़ते हैं। आज के दिन पुरुषों के चेहरे पे कुछ अलग ही रौब और ओज चमक रहा होता है। मेरी पत्नी आज मेरी लंबी उम्र के लिए सारा दिन भूखी-प्यासी व्रत करेगी ये दंभ उनके चेहरों पर ऐसे हिलोरें मारता है कि वो चाहे जितना चाहें छुपाए नहीं छुपता। वकील रूपी पुरुष जो अक्सर अपने आगे पत्नी तो क्या किसी महिला को कुछ नहीं समझते अचानक आज इस दिन अपनी पत्नी के प्रति सुकोमल हृदय वाले हो जाते हैं और सबके बीच बैठ कर उसका गुणगान भी कर लेते हैं।
हाँ! तो हुआ कुछ ऐसा कि कचहरी की उस सुंदर सुबह को सभी विवाहित पुरुष अधिवक्ता खिले-खिले से प्रतीत हो रहे थे। किसी के सिर पर किसी भी तरह का तनाव नहीं जान पड़ रहा था। शायद पत्नी के व्रत के आरंभ होते ही पुरुषों पर कुछ मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी पड़ने लगता है। कचहरी में काम में भी कुछ हल्का ही था। सभी लोग बस गुटों में एक दूसरे के साथ बैठ कर चर्चा कर रहे थे। मेरी सीट के पास भी सभी बुज़ुर्गवारों का गोलमेज़ सम्मेलन आरंभ हुआ।

“आज तो करवाचौथ है भाईसाहब, मैडम ने सुबह खाना दिया या नहीं?”
“अरे! कैसी बात करते हो मिश्रा, व्रत उनका है हमारा थोड़े, खाना कैसे नहीं बनाएँगी। उनके चक्कर में सब थोड़े भूखे रहेंगे।“
“अरे पंडित जी, आप तो नाराज़ हो गए। हम तो बस ऐसे ही पूछ लिए। अब आजकल के जमाने में वो बात कहाँ रही। अब तो....”
-(दो वकीलों के बीच की बात) 

मेरे पास ही बैठते हैं मिश्रा जी। बुजुर्ग हैं और बीमार भी रहते हैं पर रौब में कोई कमी नहीं है। मुझसे कुछ ना कुछ चर्चा करना उन्हें बहुत भाता है। मुझसे पूछ बैठे मेरी माँ व्रत कैसे रखती हैं। मैंने जवाब में कहा जैसे सहूलियत हो। सेहत और तबीयत से ऊपर कुछ नहीं। वो पानी भी पीती हैं और चाय भी। इस पर उन्होने बड़ा तुनक के कहा हमारे घर में तो वो पानी भी नहीं पीतीं। इस पर मुझसे रहा ना गया और मैंने उनसे पूछ लिया कि क्या लगता है आपको उनके पानी ना पीने से सारा दिन भूखे रहने से सचमुच आपकी उम्र बढ़ रही है। उनका शारीरिक कष्ट आपका जीवन मज़बूत कर रहा है। इस बात पर वो खिसयाए और बोले, “अब बिटिया, हमने नहीं कहा उनसे कभी कुछ, सदियों पुरानी रीत है। हम क्या कर सकते हैं। उनकी आस्था है। अब हम कैसे उनकी श्रद्धा और आस्था में बाधा बने।“

मैं मन ही मन हंसी और फिर मैंने कहा “अच्छा अंकल जी, ये बताइये कि आखिर ये व्रत औरतों को रखना ही क्यूँ पड़ता है?” अब पता नहीं बिटिया पुरातन काल से चला आ रहा सब।“ वो बोले। फिर मैंने कहा “मैं बताती हूँ, वो ऐसा है कि जब ब्रह्मा जी धरती की रचना करने कर रहे थे तो मनुष्य बनाते समय उन्होने पहले स्त्री का निर्माण किया और सारी मेहनत, सारा ध्यान, सारा अच्छी गुणवत्ता वाला मटिरियल, सब लगा डाला। जिसके परिणाम स्वरूप अकल्पनीय, सर्व गुण सम्पन्न, अपार सहनशक्ति और मनोबल से युक्त स्त्री की रचना हुई। पर फिर ब्रह्मा जी को समझ आया कि अभी तो उन्हें पुरुष की रचना भी करनी है और उनके प्रॉडक्शन यूनिट में तो बस छीलन बचा है। फिर उसी बचे-कुचे छीलन से ही उन्हें पुरुष की रचना करनी पड़ी। जिसका परिणाम ये हुआ कि पुरुष की मेकेनिस्म में मैनुफेक्चुरिंग डिफ़ेक्ट आ गया। अब इस डिफ़ेक्ट को दूर करने का कोई रास्ता ब्रह्मा जी के पास था नहीं और चूंकि उनकी सारी कृपा स्त्री को पहले ही प्राप्त हो चुकी थी तो उन्होने स्त्री को पुरुष की सुरक्षा का दायित्व सौंपते हुए अपनी दृढ़ चेतनाशक्ति के बल से समय-समय पर पुरुष के लिए भोजन-जल त्याग कर अपने ओज को पुरुष को समर्पित करने के लिए कहा। यही कारण है कि एक ही पुरुष के लिए पहले उसकी माँ, फिर बहन और फिर उसकी पत्नी बार-बार व्रत रखती हैं और ऐसे वो वर्ष प्रति वर्ष अपने जीवन को सफलता और संबल से जी पात है। वरना सोचिए क्यूँ कभी किसी पुरुष को स्त्री के लिए व्रत नहीं रखना पड़ता? क्यूंकी स्त्रियाँ तो स्टील बॉडी होती हैं, उन्हें लंबी उम्र की क्या ज़रूरत है। है ना!”

इतना कह के बस मैं प्यार से मुस्कुराइ और अंकल जी और ज़्यादा खिसिया गए। आस-पास वाले अधिवक्तागण जो भी सुन रहे थे वो भी इधर-उधर हो गए। अचानक कचहरी में काम बढ़ गया।   

नोट: ये वाक्या केवल हास्य उत्पन्न करने के लिए है। ये एक व्यंग है रूढ़िवादिता पर। इस लेख के माध्यम से मैं किसी की भी आस्था को ना तो चोट पहुंचाना चाहती हूँ ना ही परम्पराओं पर किसी प्रकार प्रशचिन्ह लगा रही हूँ। इसे पढ़ने के बाद मुझे फेमिनिस्ट की श्रेणी में भी ना रखें। क्यूंकी मुझे फेमिनिन्स्म का सही अर्थ नहीं पता। सभी को करवाचौथ की ढेरों शुभकामनायें।

सोमवार, 24 सितंबर 2018

न्याय+आलय


भाग 12

हाल ही में मेरी कचहरी में चुनाव थे। बार काउंसिल फतेहगढ़, फ़र्रुखाबाद के चुनाव। हर पाँच साल में होते हैं एक बार। मुख्य सचिव, सचिव, कोशाध्यक्ष, पुस्तकालय प्रभारी आदि इत्यादि पदों के लिए। मैंने अपने अब तक के वकालत काल में ये दूसरी बार चुनाव को देखा है। सच कहूँ तो मेरी समझ के बाहर है इस मत प्रक्रिया और चुनाव का अर्थ। कौन क्या काम करता है, क्या उत्तरदायित्व निभाता है पता नहीं। इन पदों पर आसीन अधिवक्ताओं की कार्यप्रणाली क्या होती है? इनकी अवश्यकता क्या है? मुझे कुछ पता नहीं। न्यायालय में पुस्तकालय भी है? उसकी तो मैंने कभी शक्ल भी नहीं देखी। हाँ मुख्य सचिव पद पर आसीन वरिष्ठ अधिवक्ता महोदय जो पिछले 3 सालों से लगातार इस पद पर अपना कब्जा जमाये बैठे हैं और इस बार भी भारी मतों से विजयी हुए हैं उनसे ज़रूर परिचय है मेरा। वो क्या है न वो भी कायस्थ हैं और हम भी। ये कायस्थ वाद के चक्कर में उन्हें पिछले 4 सालों से कोई हरा नहीं पाया। अब वो काम क्या करते हैं मुझे नहीं पता। पर हाँ नव वर्ष पर नयी डायरी ज़रूर मिल जाती है बार काउंसिल की तरफ से। अरे वही डायरी जिसमें पूरे साल हम दिन और तारीख के हिसाब से अपने केसेज़ का ब्योरा रखते हैं। फलानी तारीख पे, फलाने बनाम फलाने, फलानी अदालत और फलाना मुद्दा।

इसके अलावा जब भी नए पुराने वकीलों को कोई फॉर्म भर कर इलाहाबाद बार काउंसिल भेजना होता है, तो मुख्य सचिव की चिड़िया मेरा मतलब है हस्ताक्षर और मोहर की आवश्यकता पड़ती है। मैंने भी जब बार काउंसिल ऑफ इंडिया का इम्तिहान पास किया था तो उसका पासिंग सर्टिफिकेट मंगाने के लिए मुख्य सचिव साहब का रेफेरेंस लेटर लगा था। ऐसे ही अधिवक्ता जीवन बीमा और दुर्घटना बीमा इत्यादि के कई फॉर्म भरे हैं पर पॉलिसी आज तक हांथ नहीं आई। वैसे अवश्यकता पड़ने पर मुख्य सचिव प्रत्येक वकील के साथ खड़े होते हैं, और बार काउंसिल शायद कुछ अनुदान या कर्ज़े का भी प्रबंध करती है। इस प्रक्रिया के बारे में मुझे ठीक से जानकारी नहीं है। पर हाँ इतना देखा और समझा है कि बार काउंसिल ऑफ जिला हो या राज्य या भारत, वकीलों के प्रति ना तो जिम्मेदार है ना ही समर्पित।

कोशाध्यक्ष शायद उस धन का लेखा जोखा रखता हो जो कि नए- पुराने वकीलों से बार काउंसिल की फीस के तौर पर जमा कराया जाता है और फिर उसका उपयोग बार काउंसिल से संबन्धित ही कार्यों में उपयोग किया जाता है। फीस मामूली है तो जमा करने में कोई परेशानी नहीं होती किसी को। पर मैंने तो कभी जमा नहीं की। चुनाव के पहले कोई ना कोई उम्मीदवार खुद ही जमा करा देता है। आखिर वोट मांगने हैं। ऐसे ही और भी बहुत सारे पद हैं जिनके बारे में मैं बिलकुल शून्य हूँ। काफी समय से कचहरी गयी नहीं पर वोट देने तो जाना था। कमसेकम इस बहाने साथी अधिवक्ताओं को मेरी याद आ रही थी और मेरी अवश्यकता का आभास हो रहा था। वैसे भी चुनाव कहीं के भी हों मतदाता के भाव बढ़ ही जाते हैं।

कॉलेज में छात्र संघ के चुनाव होते थे तो सारे लड़के आ कर सिस्टर-सिस्टर बोल के पैर छू के जाते थे और वोट मांगते थे। ये वही कमीने थे जो बाकी के साल घूर-घूर के देखने और टोंट कसने में समय बिताया करते थे। हालांकि ये कॉलेज नहीं कचहरी है। यहाँ ऐसा कुछ नहीं। हाँ नए लड़के बुजुर्ग वकीलों के पैर छूते ही हैं। कम उम्र महिला अधिवक्ताओं के सामने बढ़िया से हांथ जोड़ कर मत की अपेक्षा की जाती है। चूंकि मैं काफी समय से कचहरी गयी नहीं तो इस बार कोई भी घर पर वोट मांगने नहीं आया। बस कुछ लोगों के फोन आए और फिर उन्हीं कुछ लोगों को अपना मत दे आयी। मतदान वाले दिन तो वैसे भी कचहरी में और कोई काम नहीं होता। पुलिस का तगड़ा पहरा होता है, मत मांगने वालों का जमावड़ा, जगह-जगह उम्मीदवारों के विज्ञापन, परचियाँ, झंडे, बिलकुल मेले जैसा सब कुछ। मतदान करने के बाद मतकक्ष से बाहर निकलने के रास्ते में ही हमको ½  किलो का एक बन्नू हलवाई के यहाँ का मिठाई का डिब्बा पकड़ाया गया। उसे लंच पैकेट कह सकते हैं। जिसके अंदर 1 खस्ता कचोरी, 1 सोहन पापड़ी, 1 मेवे का लड्डू, 1 बालू शाही और 1 दालमोंठ का पैकेट था। हाँ जी, इतना सामान कि आराम से पेट भर जाए। चलो कचहरी तक आने का, मत देने का ये फायदा तो अच्छा ही है। वहाँ तो बाकी वकील अपना-अपना पैकेट चट कर लेते हैं, हम घर तक लिए चले आए।  

काफी समय से परेशानी के दौर से गुज़र रही हूँ, अपनी बीमारी, पापा की बीमारी आदि-आदि। इसी कारण कहीं भी पूरी तरह से एकाग्र नहीं हो पाती। न तो कचहरी और ना ही लेखन। मतदान वाले दिन भी इतनी व्यस्तता थी कि पिताजी को अस्पताल से छुट्टी करा कर घर लाना था। मज़े की बात ये है कि किसी को फर्क नहीं पड़ता आप किस अवस्था में हैं, आप पर क्या बीत रही है। चुनाव है और मत अपेक्षित है तो आप अस्पताल में ही क्यूँ ना बैठे हों, उम्मीदवार या उसके गुर्गे आपको सांत्वना देने के बजाए वोट अपील कर के चले जाते हैं। मेरे साथ भी यही हुआ। जिस दिन पापा को भर्ती कराया, उसकी पिछली रात से मैं भी ना तो सोयी थी और ना ही स्वस्थ थी। पापा आई.सी.यू में थे आर मैं बाहर बैठी लगभग ऊंघ रही थी। मुझ पर नींद के साथ-साथ थकान भी सवार थी। कुछ खाने की ना तो फुर्सत मिली थी ना ही इक्षा हो रही थी। इसी दौरान एक महानुभाव आए और मुझे वहाँ बैठा देख कर उन्होने मुख्य सचिव साहब के लिए अपनी वोट अपील कर दी। इतना ही नहीं उन्हें फोन भी मिला दिया। गुस्सा मुझे यूं आया था कि क्या बताऊँ। पर फिर भी शालीनता से मैंने उनकी बात सुनी और हाँ-हाँ कहते हुए फोन वापिस उन्हें पकड़ा दिया। एक बार भी उनके मुंह से ये नहीं निकला कि परेशान ना होना सब ठीक हो जाएगा, या कोई ज़रूरत हो तो हमें बताना। परायों से कौन उम्मीद रखता है, पर तसल्ली के दो बोल काफ़ी होते हैं। पर जब चुनाव हो तो सब बेमानी है। फिर चाहे वो कचहरी हो या देश, वकील हो या नेता।
  

गुरुवार, 9 अगस्त 2018

न्याय+आलय


भाग 11

इस बार न्याय+आलय का अगला भाग लिखने में काफी समय लग गया। समझ नहीं आ रहा था कि क्या लिखूँ। मस्तिष्क में चाहे जितने विचार या मुद्दे घूम रहे हों पर उन पर ध्यान केन्द्रित कर के शब्दबद्ध करना यूं आसान होता तो बात ही क्या थी। कुछ महीनों पहले हमारे सामने एक भयावह घटना प्रत्यक्ष हुई थी। जम्मू कश्मीर के कठुआ गाँव में एक मासूम बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार और उसकी नृशंस हत्या। ये घटना जनवरी में घटी थी पर राजनीतिक दबाव के कारण इसे मीडिया ने कवर नहीं किया, या शायद इस घटना को दबा/छुपा कर रखा गया और पूरे देश को इस बारे में अप्रैल में मालूम पड़ा। बंजारे समुदाय की उस मासूम 8 वर्षीय बालिका के साथ 6 लोगों ने मिल कर दुष्कर्म किया था, उसे 6 दिन तक बंधक बना के रखा था और उसे लगातार भूखा-प्यासा रखते हुए मिश्रित नशे की ढेर सारी गोलियां दी गईं थीं। ये सब वहाँ के एक मंदिर देवीस्थान के गर्भगृह में होता रहा था। 6 दिन बाद उस बच्ची को बहुत ही नृशंसता के साथ मार दिया गया था। उन 6 लोगों में एक 60 वर्षीय मंदिर का पुजारी है, दूसरा उसका बेटा, तीसरा उसका नाबालिग भतीजा, चौथा उसके भतीजे का दोस्त और दो पुलिस कॉन्स्टेबल। इस घटना की ताज़ी खबर के अनुसार वो 6 नहीं 8 लोग थे। संयोगवश सोशल मीडिया के जरिये कुछ पत्रकार मित्रों के द्वारा ही पीड़िता की पोस्ट मार्टम रिपोर्ट और पुलिस द्वारा दायर की गयी चार्जशीट के कुछ अंश पढ़ने को मिले थे। हाल ही में सीबीआई की चार्जशीट सामने आई है। पूरी घटना का ब्योरा और उसके शरीर के साथ किए गए ज़ुल्म को पढ़ना और फिर एक बार लिखना आसान नहीं है। रोंगटे खड़े हो जाते हैं, दिल दहल जाता है। इतनी यातना उसके भाग्य में क्यूँ थी?

अब आप सोच रहे होंगे कि मेरी कचहरी के इस भाग में उस दुर्घटना की चर्चा क्यूँ कर रही हूँ? कारण है उस घटना के बाद जम्मू-कश्मीर बार एसोसियेशन और वकीलों की क्रिया-प्रतिकृया और दुष्क्रियाओं की चर्चा। यह घटना अपने आप में एक ऐसी गंभीर और भयावह घटना थी जिसने मेरे अन्तर्मन और विश्वास को सर्वाधिक चोट पहुंचाई। सच कहूँ तो बलात्कार और हत्याओं की इतनी तेज़ी से बढ़ती हुई घटनाओं से हर औरत, हर लड़की और हर बच्ची काँप रही है। 34 वर्ष की उम्र है मेरी, संभ्रांत परिवार से हूँ, कानून पढ़ा है, पुलिस से संपर्क करना और सहायता मांगना जानती हूँ, अपने अधिकारों को समझती हूँ। पर फिर भी डरने लगी हूँ। कब, कहाँ, कैसे, किस समय, किस लड़की, औरत या बालिका पर कोई झपट पड़ेगा या पड़ेंगे कोई नहीं जानता। मैंने घर से बाहर निकलना बहुत कम कर दिया है। मेरा डर बेवजह है पर हाँ, मैं डरने लगी हूँ। हर रोज़ न जाने कितनी औरतें, लड़कियां नौकरी पर निकलती हैं मुझे उनके लिए भी डर लगता है।

इस डर की बड़ी वजह है, बलात्कारियों को दिया जाने वाला सहयोग, सुरक्षा। जी हाँ! जिस तरह पहले कठुआ, फिर उन्नाओ और अब मुज़फ्फ़रपुर में दोषियों को संरक्षण प्रदान किया जा रहा है, असुरक्षा को और बढ़ा देता है। एक वकील होने के नाते ऐसा नहीं कि वकीलों की गलत सोच या दिशा का समर्थन भी मैं करू। कठुआ में जिस प्रकार दोषियों के पक्ष में जम्मू बार एसोसियशन के अध्यक्ष और अन्य वकीलों ने उस दुर्दांत घटना की छानबीन, पुलिस प्रक्रिया, चार्जशीट दायर करने की प्रक्रिया में हस्तक्षेप किया और उन बलात्कारियों के पक्ष में सड़क पर तिरंगा लहराकर, नारे लगा कर उनका बचाव करने का प्रयास किया। ये सब सोचनीय है। चूंकि ये सब एक मंदिर के गर्भगृह में घटा था और उसमें मंदिर का पुजारी भी शामिल था, इसे धर्म से जोड़ दिया गया। लड़की मुसलमान थी और हिन्दू बलात्कारी। पढ़ने में ही कितना वीभत्स लगता है कि अपराध और पीड़ित को उसकी गंभीरता के बजाय धर्म से संबोधित किया जाता है। तो ये सोच कितनी वीभत्स होगी। यहाँ तक कि पीड़िता का केस लड़ने वाली महिला वकील को भी डराया, धमकाया गया। केस ना लड़ने के लिए मजबूर किया जाता रहा। पर वो बहादुर महिला आज भी पूरी शिद्दत से उस बच्ची और उसके परिवार को न्याय दिलाने के लिए सारी मुश्किलों को झेलते हुए भी अपना फर्ज़ निभा रही है।

आज भी उस मामले में एक महत्त्वपूर्ण गवाह के साथ पुलिस कस्टडी में अत्याचार हो रहा है। उस मासूम की आत्मा को न्याय मिलने में अभी देर है। मेरा मानना है, और शायद यही तार्किक भी है कि वकीलों का काम है अदालत में अपने मुवक्किल का पक्ष रखना, उसका बचाव और समर्थन करना। ना कि सड़क पर उतर कर रैलीयां निकाल कर, तिरंगा लहराकर दोषियों के बचाव में नारे लगाना। अगर वकील स्वयं ही अदालत के बाहर ये फैसला करने लगे कि कौन दोषी है और कौन नहीं तो अदालतों की आवश्यकता ही क्या रह जाएगी और क्या ये तरीका किसी जंगलराज से कम है? वकील खुद ही अगर पुलिस प्रक्रिया, छानबीन इत्यादि में हस्तक्षेप करेंगे तो आखिर दोषियों का दोष सिद्ध किस प्रकार होगा?

अधिवक्ताओं के इस आचरण से मुझे ऐतराज है। मुझे लगता है कि वकील अपने कार्यक्षेत्र और उनकी सीमाओं का उल्लंघन कर रहे हैं और अपनी मर्यादा के बाहर जा कर आचरण करना उनके लिए भी दंडनीय होना चाहिए। इस ओर मैंने अपना प्रथम प्रयास किया और change.org पर एक ऑनलाइन पिटीशन दायर किया। उसमें बार काउंसिल ऑफ इंडिया और सर्वोच्च न्यायालय को संबोधित करते हुए मैंने उनसे ये प्रार्थना की थी कि जम्मू बार एसोसियशन से उनके इस आचरण का हिसाब मांगा जाए और उनका दोष सिद्ध होने पर उन पर सख्त कार्यवाही की जाए। साथ ही सभी राज्यों की बार काउनसिल्स पर सख्त नियम लागू किए जाने चाहिए जिससे कि आने वाले समय में इस तरह की घटनाएँ दुबारा घटित ना हों और अधिवक्ता अपने कार्य की मर्यादा ना भूलें। उस पिटीशन का लिंक – https://www.change.org/p/bar-council-of-india-lawyers-and-bar-association-protesting-in-support-of-criminals-must-be-punished?recruiter=246244876&utm_source=share_petition&utm_medium=copylink&utm_campaign=share_petition

मेरे पिटीशन को 3000 से अधिक लोगों ने अपने हस्ताक्षरों द्वारा समर्थन दिया। उस समय मामला ज़ोरों पर था सर्वोच्च न्यायालय ने बार काउंसिल ऑफ इंडिया से जम्मू बार एसोसियशन से जवाब तलब करने का आदेश भी जारी किया। एक जांच कमिटी भी बैठाई गयी। पर नतीजा कुछ खास नहीं निकला। जम्मू बार एसोसियशन ने सारे इल्जामों को सिरे से नकार दिया (जांच कमिटी की जांच के बारे में अब तक कोई जानकारी नहीं, हुई भी या नहीं)। बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने भी अपनी खानापूर्ति करते हुए सर्वोच न्यायालय को जवाब में यही जानकारी दी कि जम्मू बार एसोसियशन ने कठुआ कांड में पुलिस की कार्यवाही में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया। बहुत अफसोस होता है मुझे कि बार काउंसिल ऑफ इंडिया को स्वयं ही असल में अपनी छवि का कोई खास मान नहीं है। देख रही हूँ कि अधिकतर मामलों में सर्वोच्च न्यायालय स्वयं ही संज्ञन ले रहा है। पर कब तक और कितना और किन-किन बातों पर सर्वोच्च न्यायालय ही संज्ञान ले सकता है। कृयांवन तो नीचे बैठे संबन्धित अधिकारी या प्रशासन को ही करना है।

ऐसा नहीं है कि बार काउंसिल ऑफ इंडिया वकीलों के हित के लिए ही कुछ बहुत अच्छा कर रहा हो। अदालतें कैसे चल रही हैं, ये उसके अंदर बैठे लोग ही जानते हैं। मेरे पिटीशन को और अधिक सहयोग नहीं मिल पाया, मैं भी आगे नयी जानकारी अपडेट नहीं कर पायी क्यूंकी कुछ हो ही नहीं रहा। अब मैं इस प्रयास में हूँ कि अपनी पूरी बात किसी तरह सर्वोच्च न्यायालय तक सीधे पहुंचा पाऊँ। लोकतन्त्र के चार स्तंभों में से न्यायपालिका भी एक महत्त्वपूर्ण स्तम्भ है। जैसे पत्रकारिता अपने पतन पर है न्यायपालिका नहीं होनी चाहिए। इस लेख के माध्यम से मैं अपने पाठकों से अपील करती हूँ कि मेरे पिटीशन पर हस्ताक्षर करें (लिंक ऊपर दिया है, पुनः लेख के अंत में भी मिलेगा। उस लिंक को आप कॉपी कर के सर्च बार में पेस्ट कीजिये और एंटर कीजिये) और मेरे प्रयास का समर्थन करे। जिससे मैं अपनी बात सर्वोच्च न्यायालय तक पूरी मजबूती के साथ पहुंचा पाऊँ। न्यायपालिका को उसके पतन मार्ग से ऊपर उठ कर देश और जनता के हित में पुनः लौटना होगा।      


https://www.change.org/p/bar-council-of-india-lawyers-and-bar-association-protesting-in-support-of-criminals-must-be-punished?recruiter=246244876&utm_source=share_petition&utm_medium=copylink&utm_campaign=share_petition

बुधवार, 11 जुलाई 2018

न्याय+आलय


भाग 10

अभी कुछ समय पहले ही फेसबुक पर एक महानुभाव से वाद-विवाद हुआ। मेरे लिए वो अपरिचित थे। पर फेसबुक ऐसा पायदान हैं जहां परिचित-अपरिचित सभी अपने विचारों का आदान प्रदान करते हैं, पूरी स्वकछंदता के साथ। मसला ये था कि मैंने अपनी एक फेसबुक महिला मित्र की टाइमलाइन पर मंदसौर में हुए बलात्कार की पीड़िता से संबन्धित एक पोस्ट देखा जो उसने किसी अजीब हिन्दुत्व पेज से उठा कर साझा किया था। उस पोस्ट पर उस अपराधी की तस्वीर और पीड़िता के नाम के साथ हिन्दू-मुस्लिम विवाद खड़ा करने जैसा कंटैंट था। मेरे अंदर का वकील कहिए या जिम्मेदार नागरिक या बस खुली और सरल सोच के मेरे व्यक्तित्व ने ये फर्ज़ समझा कि मैं उसे ये समझाऊँ (चूंकि वो मेरी मित्र भी है) कि बलात्कार पीड़िता का नाम या जानकारी उजागर करना कानूनन दंडनीय अपराध है और कृपया वो इस दुष्कर्म को धार्मिक रंग देने वालों का समर्थन करते हुए ऐसे पोस्ट को साझा ना करे। बस मैंने ऐसा ही कुछ टिप्पणी में लिख दिया। अब यहाँ बता दूँ कि वो मेरी मित्र कमसेकम मुझसे उम्र में 8 साल तो छोटी होगी ही। उसे मेरी बात पसंद नहीं आयी और कुछ बहस छिड़ी। उस बहस में ये महानुभाव जो उसके फेसबुक मित्र हैं इस बहस में कूद पड़े और मेरी बात को सिरे से नकारा। मैंने फिर अपनी बात को समझाने के लिए ये स्पष्ट किया कि मैं एक अधिवक्ता हूँ, कानून की समझ रखती हूँ और इसीलिए अपना उत्तरदायित्व समझती हूँ कि कमसेकम अपने मित्रों को सही-गलत समझा पाऊँ। पर कोई फायदा नहीं हुआ और छोटी सी बात विवाद में तब्दील हो गयी।

उस विवाद का परिणाम ये निकला कि जब उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं बचा तो उन्होने मेरे वकील होने, मेरी अँग्रेजी की त्रुटियों, मेरे जीवन जिसके बारे में वो कुछ नहीं जानते, इत्यादि पर उन्होने निजी और अभद्र टिप्पणियाँ करनी शुरू कर दीं। काफी देर तक मैंने प्रयास किया कि सदी हुई भाषा में इस अनेपक्षित और अनावश्यक अपमान का सामना दृढ़ता से करूँ और उन्हें जवाब देती रहूँ। पर फिर हार-थक कर मैंने ही अपनी पराजय स्वीकार की और उनसे क्षमा भी मांगी कि आइंदा मैं अपने ज्ञान को उन जैसों के साथ साझा करने से पहले 100 बार सोचूँगी।

माना कि हमारे संविधान ने वाक स्वतन्त्रता का अधिकार हमें दिया है और सोशल मीडिया ने हमें अपनी बात अजनबियों तक भी पहुंचाने का मौका दिया है। पर नियम, कानून का उल्लंघन, और अनावश्यक अपमानजनक टिप्पणियाँ कहाँ तक उचित है। छठी कक्षा में हमारा परिचय नीतिशास्त्र यानी सिविक्स से कराया जाता है। जहां हमें सबसे पहले हमारे मौलिक अधिकार और कर्तव्यों का पाठ पढ़ाया जाता है। इसके लिए वकील होने की ज़रूरत नहीं पड़ती। पर बड़े होते-होते हमें केवल अधिकार ही याद क्यूँ रह जाते हैं, उन कर्तव्यों का क्या जो संविधान में मौजूद हैं और जिन्हें हमारे लिए निभाना आवश्यक है। उन्हीं कर्तव्यों में से एक है भारतीय न्यायव्यवस्था, नियम, कानून का सम्मान और सुरक्षा।

अपराधों के लिए दंडव्यवस्था, पीड़ितों की सुरक्षा के लिए न्यायव्यवस्था बनाते समय बहुत कुछ ध्यान में रखा गया है। ये किसी क्षणिक आवेग में बने हुए नियम कानून नहीं हैं, जिनका हम खुले आम उपहास उड़ा सकते हैं। अगर उपरलिखित मसले की ही चर्चा करें तो बलात्कार/शारीरिक शोषण पीड़िता की निजी जानकारी को गुप्त रखने के पीछे जो सख्त नियम हैं और उस सूचना को उजागर करने वाले के लिए सख्त दंड का प्रावधान है, वो इसलिए क्यूंकी उस पीड़िता की स्थिति संवेदनशील होती है। उसकी और उसके परिवार की सुरक्षा का दायित्व एक बहुत बड़ी और मुश्किल ज़िम्मेदारी होती है। न केवल सामाजिक बल्कि अराजक तत्वों से उसकी सुरक्षा करना तभी संभव हो सकता है जब उसकी सूचना (उसका चित्र, उसका नाम और अन्य जानकारी) पूरी तरह से गुप्त राखी जाए। इतनी छोटी सी बात लोगों को समझ नहीं आती। क्या लगता है इस प्रकार उसकी निजी जानकारी उजागर कर के, उसकी स्थिति और संवेदनशील कर के कैसे उसे न्याय प्राप्ति में आप सहायता प्रदान कर रहे हैं। आप सिर्फ उसकी मुश्किलें बढ़ा रहे हैं। इसके साथ ही किसी भी अपराध को धर्म से जोड़ कर प्रस्तुत करना निहायती घिनौनी प्रक्रिया है। दोषी, उसका अपराध और उसके लिए मिलने वाला दंड समान ही रहेगा चाहे वो किसी भी धर्म से संबंध रखने वाले व्यक्ति ने किया हो।

ये कोई जटिल गणितीय सूत्र नहीं है जो समझने में दिक्कत हो। पर फिर भी लोग खास तौर से युवा वर्ग किसी नए ज्ञान को जज़्ब करने के लिए ना तो तैयार है और ना ही खुद अपना ज्ञान बढ़ाने का इक्षुक। अब आगे बात आती है उन महानुभाव कि जिनहोने मेरा भरपूर अपमान किया। वो देश की राजधानी से सटे साइबर हब में एक बीपीओ में कार्यरत हैं। वकीलों के जीवन, कार्य प्रणाली, परिशर्म इत्यादि से बिलकुल अनिभिज्ञ हैं। पर दोष देना उन्हें अच्छी तरह से आता है। उनके हिसाब से मेरा जीवन नीरस है, मैंने शायद यूं हीं वकालत पास कर ली और मैं एक कुंठनीय जीवन व्यतीत करती हूँ। जिसके विपरीत उनका जीवन अत्यंत ही आनंददायक और जीवंत है। मेरी अँग्रेजी कमजोर है और मेरे जैसे लोगों का कोई खास भविष्य नहीं होता।

हालांकि उन्हें ये लेख पढ़ने को नहीं मिलेगा, मिलेगा भी शायद तो वो ठीक से पढ़ कर समझ ना पाएँ क्यूंकी वो एक गैर हिन्दी भाषी राज्य से हैं। फिर भी मैं आज अपनी प्रोफेशनल जीवन से संबन्धित कुछ भावनाएं व्यक्त करना चाहती हूँ।

वकील एकमात्र ऐसी कौम है जो आवश्यक रूप से दोहरे स्नातक होते हैं। आप डॉक्टर, इंजीनियर, एम.बी.ए. इत्यादि कुछ भी पढ़ सकते हैं, बन सकते हैं, कोई भी दिशा चुन सकते हैं। पर वकालत पढ़ के वकील होने के लिए पहले से ही स्नातक होना आवश्यक होता है। अब तो स्नातक उपाधि पाने के बाद वकालत की डिग्री की तीन साल की पढ़ाई करने के लिए पहले एक इम्तिहान देना पड़ता है जो आपकी योग्यता को मापता है कि कौन इस पेशे के लायक है और कौन नहीं। उसके बाद जब आप वकालत की डिग्री प्राप्त करते हैं तो अदालत में वकील के रूप में आधिकारिक पंजीयन पाने के लिए भी एक इम्तिहान से दो-चार होना पड़ता है। ये इम्तिहान भी आल-इंडिया लेवेल पर होता है और संबन्धित राज्य बार-काउनसिल्स के अधीन होता है। इस परीक्षा के जरिये नए विधि डिग्री धारकों की जांच होती है कि वो वकालत के लिए तैयार हैं भी या नहीं। इंटर के बाद 7 साल का अथक परिश्रम जा के आपको कहीं एक अधिवक्ता या वकील के रूप में कार्य करने का अवसर देता है। उसके बाद कुछ समय और निवेश करना पड़ता है अदालत की कार्यप्रणाली को समझने और सीखने के लिए। इस सब के बारे में मैं इस शृंखला के शुरुआती भागों में चर्चा कर चुकी हूँ। अदालत में एक बार अपनी जगह बना लेने पर हमारा दिन शायद एक 10 रुपये के नोट से शुरू होता हो पर आप अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते कि दिन के अंत तक या माह के अंत तक हम कितना कमा सकते है। माना कि आज गूगल कर के आप सारा कानून जान सकते हैं। पर अदालत में किस नियम को कहाँ और कैसे प्रयोग करना है ये हम जानते और समझते हैं। हम हैं जो साधारण जनता का प्रतिनितिधित्व न्यायाधीश के सामने दृढ़ हो कर करते हैं। हम केवल आजीविका नहीं कमाते, हम न्याय कमाते हैं, न्याय दिलाते हैं।

हर व्यक्ति का अपना कार्यक्षेत्र होता है, कोई छोटा या बड़ा नहीं। कोई बहतर या कोई बद्तर नहीं। माना कि हम 12-14 घंटे ए.सी. दफ्तरों में कंप्यूटर के सामने आँखें गड़ाए उँगलियाँ नहीं चलाते, पर महनत में हमारे कोई कमी नहीं है। जब हम अपनी आजीविका के लिए कार्यरत होते हैं तो उससे कोई और भी फलीभूत हो रहा होता है। रही बात भाषा की तो हम अँग्रेजी या हिन्दी के मोहताज नहीं। हमें भारत की 3 आधिकारिक भाषाओं में काम करने में आदत होती है। हिन्दी (हिन्दी भाषी राज्यों के लिए), अँग्रेजी और उर्दू (देवनागरी लिपि में)।          


शुक्रवार, 6 जुलाई 2018

न्याय+आलय


भाग 9

................जैसा कि मैंने पिछले भाग में चर्चा की, भारतीय न्यायव्यवस्था में एक बड़ी लूप होल है बनाए गए कानून का दुरुपयोग। जी हाँ, कानून बनाए गए लोगो के हितों और उनकी सुरक्षा के लिए। पर उनका सही उपयोग जितना हो पाता हो पर दुष्प्रयोग बहुत होता है और ये एक बहुत बड़ा कारण है पीड़ितों को न्याय प्राप्ति में देर लगती है।

भारत में सबसे ज़्यादा दुष्प्रयोग होने वाले क़ानूनों में मुख्य है- स्त्रियॉं के हितों और सुरक्षा के लिए बनाए गए कानून, जिनमें दहेज, घरेलू हिंसा, बलात्कार, और शारीरिक व मानसिक शोषण। सदा सर्वदा से ही भारत में स्त्रियों की स्थिति अधर में रही है। पहले बेटियों को पिता की संपत्ति में अधिकार प्राप्त नहीं था, तो शादी के बाद उन्हें घरेलू हिंसा और दहेज प्रथा के दुराचार से गुजरना पड़ता था (आज भी गुजरना पड़ता है), बलात्कार और शारीरिक शोषण के बारे में तो लगभग हर रोज़ 6-7 मामले ऐसे होते हैं जो सामने आते हैं, छुपे हुए कितने होंगे इसका तो हमें कोई अंदाज़ा ही नहीं। मात्र घर ही नहीं नौकरी पेशा महिलाओं का अनेकों शोषणों से सामना होता ही रहता है। इसी सब के अंतर्गत संविधान में महिलाओं की सुरक्षा और हितों को ध्यान में रखते हुए उनके लिए कानून बनाए गए। जिससे कि उनके जीवन की कठिनाइयों में कुछ हद तक कमी आ सके। कमी आई भी है, शिक्षित और जागरूक होने के साथ-साथ ही समाज में परिवर्तन भी आए हैं। लोगों में कुछ हद तक न्यायपालिका का डर भी है। पर ऐसा नहीं है कि अपराध घट गए हों। हाँ पीड़ितों को न्याय अवश्य मिल जाता है। देर-सवेर ही सही। दहेज प्रथा और घरेलू हिंसा, बलात्कार इत्यादि को ले के सख्त दंड प्रक्रिया है।

ये दंड प्रक्रिया जहां तक एक वरदान है वहीं एक बहुत बड़ा श्राप तब सिद्ध होती है जब महिलाएं इसका दुरुपयोग करती हैं, चाहे मर्ज़ी से या परिस्थितियों से विवश हो कर। कई मामले ऐसे देखे गए हैं जहां प्रेम शादी तक नहीं पहुँच पाता और प्रेमिका रुष्ट हो कर प्रतिकार चाहती है और अपने प्रेमी के विरुद्ध शारीरिक शोषण या बलात्कार का मामला दर्ज करा देती है। कई बार ऐसा हुआ है जहां लड़का-लड़की अपनी इक्षा से घर से भाग जाते हैं और पकड़े जाने पर लड़की को इक्षा या विवशता में लड़के के विरुद्ध बयान देना पड़ता है, और लड़के पर अपहरण और शोषण का मुक़द्दमा दायर होता है। दोनों ही मामलों में लड़के का जीवन बरबादी की ओर अग्रसर हो जाता है। सालों साल लड़की और लड़के का परिवार पुलिस, और अदालत के चक्कर काटते हुए निकालता है। जिसका अंतिम निर्णय या तो समझौते पर आ कर रुकता है या लड़के को सज़ा हो जाती है। दूसरे मामले में गौर करें तो यदि लड़की नाबालिग है तो समझिए उस लड़के के जीवन का एक अच्छा समय जेल में कटेगा। मामला दोनों में से कोई हो दोनों परिवारों का, पुलिस का, अदालत का, वकील का, सभी का समय नष्ट होगा।

अगर घरेलू हिंसा और दहेज विरोधी कानून के संबंध में बात करें तो जहां दहेज के लिए घर से निकाली हुई, प्रताड़ित की गयी महिलाएं हैं वहीं जला कर, या किसी और प्रकार से मार दी गईं महिलाओं के मामले हमेशा से सामने आते रहे हैं। ये अपराध इतने जघन्य हैं कि इनकी गंभीरता को ध्यान में रखते हुए ये स्त्री प्रधान न्यायव्यवस्था का एक प्रतिरूप माने जा सकते हैं। इनका निर्माण कुछ इस प्रकार किया गया है कि इसमें पीड़िता की शिकायत को प्राथमिकता पे रख कर आगे की प्रक्रिया या जांच को निर्धारित किया गया है। हालात बदले हैं, समाज भी बदला है, इसी प्रकार सोच भी बदली है। अक्सर देखने में आ रहा है कि अनावश्यक कारणों के चलते स्त्रियाँ अब शादी के तुरंत बाद ही अपना ससुराल स्वयं छोड़ देती हैं और फिर अपने पती और ससुराल पक्ष पर दहेज और घरेलू हिंसा का दावा दायर कर देती है। उनका सीधा सा मकसद होता है शादी से विलग होना पर अपने पती की संपत्ति में हिस्सा प्राप्त कर के। पहले ऐसे मामलों में ससुराल पक्ष की सीधी गिरफ्तारी होती थी पर इसका दुरुपयोग देखते हुए इस नियम में थोड़ी ढील दी गयी है और अब मामला दर्ज कर लिया जाता है और यदि हत्या और हत्या का प्रयास ना हुआ हो तो गिरफ्तारी नहीं की जाती। इन झूठे मामलों का भी निष्कर्ष आखिरकार समझौते पर ही निकलता है। पर इस सब में कुछ महीने या साल निकल जाते हैं और अदालत और पुलिस का बहुत सारा समय व्यर्थ हो जाता है।

मैं ये बिलकुल नहीं कह रही हूँ कि सभी महिलाएं झूठी हैं या सभी मामले झूठे हैं। मैं ये कह रही हूँ कि ऐसे झूठे मामलो की तादात बढ़ती जा रही है। जिसका सीधा प्रभाव असली पीड़ितों को मिलने वाले न्याय पर पड़ता है। इसी संदर्भ में जब सन 2012 में POCSO Act (Prevention of Children Against Sexual Offences) को न्यायव्यवस्था में स्थान मिला तो ये भी नाबालिग बच्चों पर हो रहे शोषण के खिलाफ एक वरदान की तरह सिद्ध हुआ। इस एक्ट के अंतर्गत नवजात शिशु से ले के 17 साल तक के नाबालिग लड़के और लड़कियों पर होने वाले शारीरिक शोषण के विरुद्ध सख्त दंड प्रक्रिया का विधान है। पर समस्या वही है, दुरुपयोग। और जहां तक मैंने देखा है इस एक्ट का दुरुपयोग करने वाले गाँव-देहात के लोग हैं।

अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए, अपनी दुश्मनी किसी से निभाने के लिए अपनी स्त्रियों या बच्चों का ऐसा उपयोग मत कीजिये। कानून आपकी सुरक्षा के लिए है ना कि नाजायज स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए। कानून बनाया गया पीड़ितों के कष्ट हरने के लिए, किसी और को पीड़ित बनाने के लिए नहीं। अगली बार जब आप न्यायव्यवस्था, न्यायपालिका, अदालत, पुलिस और वकील पर न्याय मिलने में देरी या आलस्य का दोष लगाएँ और उंगली उठाएँ तो इस बात पर गौर ज़रूर करें कि आपकी बाकी 3 उँगलियाँ और 1 अंगूठा कहीं आपकी ही ओर तो नहीं घूम गए। जब भी कोई फर्जी मामला अदालत में दायर करने जाएँ तो एक बार अपनी आत्मा को झिंझोड़ें ज़रूर और सोचें कि आपके कारण किस पीड़ित को न्याय मिलने में देरी हो रही है और उसकी अवस्था आपके मुक़ाबले क्या है?

न्यायपालिका अपने कार्य में सक्षम है, दोष रहित है और समर्पित है। जब हम अपने अधिकारों को जानते और समझते हैं तो अब आवश्यकता है कि अपने दायित्वों को भी समझें और स्वीकारें। न्यायपालिका हमारे देश का एक आवश्यक और मजबूत स्तम्भ है, और जब ये स्तम्भ हमारे देश की इमारत को साधे हुए है तो हमारा भी कर्तव्य बनता है कि इस स्तम्भ की मज़बूती को कमजोर ना पड़ने दें और इसका दुरुपयोग ना करते हुए अपना सच्चा योगदान दें।