शुक्रवार, 6 जुलाई 2018

न्याय+आलय


भाग 9

................जैसा कि मैंने पिछले भाग में चर्चा की, भारतीय न्यायव्यवस्था में एक बड़ी लूप होल है बनाए गए कानून का दुरुपयोग। जी हाँ, कानून बनाए गए लोगो के हितों और उनकी सुरक्षा के लिए। पर उनका सही उपयोग जितना हो पाता हो पर दुष्प्रयोग बहुत होता है और ये एक बहुत बड़ा कारण है पीड़ितों को न्याय प्राप्ति में देर लगती है।

भारत में सबसे ज़्यादा दुष्प्रयोग होने वाले क़ानूनों में मुख्य है- स्त्रियॉं के हितों और सुरक्षा के लिए बनाए गए कानून, जिनमें दहेज, घरेलू हिंसा, बलात्कार, और शारीरिक व मानसिक शोषण। सदा सर्वदा से ही भारत में स्त्रियों की स्थिति अधर में रही है। पहले बेटियों को पिता की संपत्ति में अधिकार प्राप्त नहीं था, तो शादी के बाद उन्हें घरेलू हिंसा और दहेज प्रथा के दुराचार से गुजरना पड़ता था (आज भी गुजरना पड़ता है), बलात्कार और शारीरिक शोषण के बारे में तो लगभग हर रोज़ 6-7 मामले ऐसे होते हैं जो सामने आते हैं, छुपे हुए कितने होंगे इसका तो हमें कोई अंदाज़ा ही नहीं। मात्र घर ही नहीं नौकरी पेशा महिलाओं का अनेकों शोषणों से सामना होता ही रहता है। इसी सब के अंतर्गत संविधान में महिलाओं की सुरक्षा और हितों को ध्यान में रखते हुए उनके लिए कानून बनाए गए। जिससे कि उनके जीवन की कठिनाइयों में कुछ हद तक कमी आ सके। कमी आई भी है, शिक्षित और जागरूक होने के साथ-साथ ही समाज में परिवर्तन भी आए हैं। लोगों में कुछ हद तक न्यायपालिका का डर भी है। पर ऐसा नहीं है कि अपराध घट गए हों। हाँ पीड़ितों को न्याय अवश्य मिल जाता है। देर-सवेर ही सही। दहेज प्रथा और घरेलू हिंसा, बलात्कार इत्यादि को ले के सख्त दंड प्रक्रिया है।

ये दंड प्रक्रिया जहां तक एक वरदान है वहीं एक बहुत बड़ा श्राप तब सिद्ध होती है जब महिलाएं इसका दुरुपयोग करती हैं, चाहे मर्ज़ी से या परिस्थितियों से विवश हो कर। कई मामले ऐसे देखे गए हैं जहां प्रेम शादी तक नहीं पहुँच पाता और प्रेमिका रुष्ट हो कर प्रतिकार चाहती है और अपने प्रेमी के विरुद्ध शारीरिक शोषण या बलात्कार का मामला दर्ज करा देती है। कई बार ऐसा हुआ है जहां लड़का-लड़की अपनी इक्षा से घर से भाग जाते हैं और पकड़े जाने पर लड़की को इक्षा या विवशता में लड़के के विरुद्ध बयान देना पड़ता है, और लड़के पर अपहरण और शोषण का मुक़द्दमा दायर होता है। दोनों ही मामलों में लड़के का जीवन बरबादी की ओर अग्रसर हो जाता है। सालों साल लड़की और लड़के का परिवार पुलिस, और अदालत के चक्कर काटते हुए निकालता है। जिसका अंतिम निर्णय या तो समझौते पर आ कर रुकता है या लड़के को सज़ा हो जाती है। दूसरे मामले में गौर करें तो यदि लड़की नाबालिग है तो समझिए उस लड़के के जीवन का एक अच्छा समय जेल में कटेगा। मामला दोनों में से कोई हो दोनों परिवारों का, पुलिस का, अदालत का, वकील का, सभी का समय नष्ट होगा।

अगर घरेलू हिंसा और दहेज विरोधी कानून के संबंध में बात करें तो जहां दहेज के लिए घर से निकाली हुई, प्रताड़ित की गयी महिलाएं हैं वहीं जला कर, या किसी और प्रकार से मार दी गईं महिलाओं के मामले हमेशा से सामने आते रहे हैं। ये अपराध इतने जघन्य हैं कि इनकी गंभीरता को ध्यान में रखते हुए ये स्त्री प्रधान न्यायव्यवस्था का एक प्रतिरूप माने जा सकते हैं। इनका निर्माण कुछ इस प्रकार किया गया है कि इसमें पीड़िता की शिकायत को प्राथमिकता पे रख कर आगे की प्रक्रिया या जांच को निर्धारित किया गया है। हालात बदले हैं, समाज भी बदला है, इसी प्रकार सोच भी बदली है। अक्सर देखने में आ रहा है कि अनावश्यक कारणों के चलते स्त्रियाँ अब शादी के तुरंत बाद ही अपना ससुराल स्वयं छोड़ देती हैं और फिर अपने पती और ससुराल पक्ष पर दहेज और घरेलू हिंसा का दावा दायर कर देती है। उनका सीधा सा मकसद होता है शादी से विलग होना पर अपने पती की संपत्ति में हिस्सा प्राप्त कर के। पहले ऐसे मामलों में ससुराल पक्ष की सीधी गिरफ्तारी होती थी पर इसका दुरुपयोग देखते हुए इस नियम में थोड़ी ढील दी गयी है और अब मामला दर्ज कर लिया जाता है और यदि हत्या और हत्या का प्रयास ना हुआ हो तो गिरफ्तारी नहीं की जाती। इन झूठे मामलों का भी निष्कर्ष आखिरकार समझौते पर ही निकलता है। पर इस सब में कुछ महीने या साल निकल जाते हैं और अदालत और पुलिस का बहुत सारा समय व्यर्थ हो जाता है।

मैं ये बिलकुल नहीं कह रही हूँ कि सभी महिलाएं झूठी हैं या सभी मामले झूठे हैं। मैं ये कह रही हूँ कि ऐसे झूठे मामलो की तादात बढ़ती जा रही है। जिसका सीधा प्रभाव असली पीड़ितों को मिलने वाले न्याय पर पड़ता है। इसी संदर्भ में जब सन 2012 में POCSO Act (Prevention of Children Against Sexual Offences) को न्यायव्यवस्था में स्थान मिला तो ये भी नाबालिग बच्चों पर हो रहे शोषण के खिलाफ एक वरदान की तरह सिद्ध हुआ। इस एक्ट के अंतर्गत नवजात शिशु से ले के 17 साल तक के नाबालिग लड़के और लड़कियों पर होने वाले शारीरिक शोषण के विरुद्ध सख्त दंड प्रक्रिया का विधान है। पर समस्या वही है, दुरुपयोग। और जहां तक मैंने देखा है इस एक्ट का दुरुपयोग करने वाले गाँव-देहात के लोग हैं।

अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए, अपनी दुश्मनी किसी से निभाने के लिए अपनी स्त्रियों या बच्चों का ऐसा उपयोग मत कीजिये। कानून आपकी सुरक्षा के लिए है ना कि नाजायज स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए। कानून बनाया गया पीड़ितों के कष्ट हरने के लिए, किसी और को पीड़ित बनाने के लिए नहीं। अगली बार जब आप न्यायव्यवस्था, न्यायपालिका, अदालत, पुलिस और वकील पर न्याय मिलने में देरी या आलस्य का दोष लगाएँ और उंगली उठाएँ तो इस बात पर गौर ज़रूर करें कि आपकी बाकी 3 उँगलियाँ और 1 अंगूठा कहीं आपकी ही ओर तो नहीं घूम गए। जब भी कोई फर्जी मामला अदालत में दायर करने जाएँ तो एक बार अपनी आत्मा को झिंझोड़ें ज़रूर और सोचें कि आपके कारण किस पीड़ित को न्याय मिलने में देरी हो रही है और उसकी अवस्था आपके मुक़ाबले क्या है?

न्यायपालिका अपने कार्य में सक्षम है, दोष रहित है और समर्पित है। जब हम अपने अधिकारों को जानते और समझते हैं तो अब आवश्यकता है कि अपने दायित्वों को भी समझें और स्वीकारें। न्यायपालिका हमारे देश का एक आवश्यक और मजबूत स्तम्भ है, और जब ये स्तम्भ हमारे देश की इमारत को साधे हुए है तो हमारा भी कर्तव्य बनता है कि इस स्तम्भ की मज़बूती को कमजोर ना पड़ने दें और इसका दुरुपयोग ना करते हुए अपना सच्चा योगदान दें।
 
    

2 टिप्‍पणियां:

  1. किसी भी सामाजिक व्यवस्था को सुधारने के लिए समाज में रहने वाले हर इंसान को अपने दायित्वों को भी समझना होगा I ठीक ही लिखा है कि जब हम अपने अधिकारों को जानते और समझते हैं तो अब आवश्यकता है कि अपने दायित्वों को भी समझें और स्वीकारें I

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  2. बिलकुल सही । समाज के नागरिक जब कर्तव्यों को नहीं पहचानते हुए केवल अधिकारों के दुरुपयोग में लगे रहेंगे तो व्यवस्था को दोष देते रहने से कोई सुधार नहीं होगा ।

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