भाग
10
अभी
कुछ समय पहले ही फेसबुक पर एक महानुभाव से वाद-विवाद हुआ। मेरे लिए वो अपरिचित थे।
पर फेसबुक ऐसा पायदान हैं जहां परिचित-अपरिचित सभी अपने विचारों का आदान प्रदान
करते हैं, पूरी स्वकछंदता के साथ। मसला ये था कि मैंने अपनी एक फेसबुक महिला मित्र
की टाइमलाइन पर मंदसौर में हुए बलात्कार की पीड़िता से संबन्धित एक पोस्ट देखा जो
उसने किसी अजीब हिन्दुत्व पेज से उठा कर साझा किया था। उस पोस्ट पर उस अपराधी की
तस्वीर और पीड़िता के नाम के साथ हिन्दू-मुस्लिम विवाद खड़ा करने जैसा कंटैंट था।
मेरे अंदर का वकील कहिए या जिम्मेदार नागरिक या बस खुली और सरल सोच के मेरे
व्यक्तित्व ने ये फर्ज़ समझा कि मैं उसे ये समझाऊँ (चूंकि वो मेरी मित्र भी है) कि
बलात्कार पीड़िता का नाम या जानकारी उजागर करना कानूनन दंडनीय अपराध है और कृपया वो
इस दुष्कर्म को धार्मिक रंग देने वालों का समर्थन करते हुए ऐसे पोस्ट को साझा ना करे।
बस मैंने ऐसा ही कुछ टिप्पणी में लिख दिया। अब यहाँ बता दूँ कि वो मेरी मित्र
कमसेकम मुझसे उम्र में 8 साल तो छोटी होगी ही। उसे मेरी बात पसंद नहीं आयी और कुछ
बहस छिड़ी। उस बहस में ये महानुभाव जो उसके फेसबुक मित्र हैं इस बहस में कूद पड़े और
मेरी बात को सिरे से नकारा। मैंने फिर अपनी बात को समझाने के लिए ये स्पष्ट किया
कि मैं एक अधिवक्ता हूँ, कानून की समझ रखती हूँ और इसीलिए
अपना उत्तरदायित्व समझती हूँ कि कमसेकम अपने मित्रों को सही-गलत समझा पाऊँ। पर कोई
फायदा नहीं हुआ और छोटी सी बात विवाद में तब्दील हो गयी।
उस
विवाद का परिणाम ये निकला कि जब उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं बचा तो उन्होने
मेरे वकील होने, मेरी अँग्रेजी की त्रुटियों, मेरे जीवन जिसके बारे में वो कुछ नहीं जानते,
इत्यादि पर उन्होने निजी और अभद्र टिप्पणियाँ करनी शुरू कर दीं। काफी देर तक मैंने
प्रयास किया कि सदी हुई भाषा में इस अनेपक्षित और अनावश्यक अपमान का सामना दृढ़ता
से करूँ और उन्हें जवाब देती रहूँ। पर फिर हार-थक कर मैंने ही अपनी पराजय स्वीकार
की और उनसे क्षमा भी मांगी कि आइंदा मैं अपने ज्ञान को उन जैसों के साथ साझा करने
से पहले 100 बार सोचूँगी।
माना
कि हमारे संविधान ने वाक स्वतन्त्रता का अधिकार हमें दिया है और सोशल मीडिया ने
हमें अपनी बात अजनबियों तक भी पहुंचाने का मौका दिया है। पर नियम, कानून का उल्लंघन, और अनावश्यक अपमानजनक टिप्पणियाँ
कहाँ तक उचित है। छठी कक्षा में हमारा परिचय नीतिशास्त्र यानी सिविक्स से कराया
जाता है। जहां हमें सबसे पहले हमारे मौलिक अधिकार और कर्तव्यों का पाठ पढ़ाया जाता
है। इसके लिए वकील होने की ज़रूरत नहीं पड़ती। पर बड़े होते-होते हमें केवल अधिकार ही
याद क्यूँ रह जाते हैं, उन कर्तव्यों का क्या जो संविधान में
मौजूद हैं और जिन्हें हमारे लिए निभाना आवश्यक है। उन्हीं कर्तव्यों में से एक है
भारतीय न्यायव्यवस्था, नियम, कानून का
सम्मान और सुरक्षा।
अपराधों
के लिए दंडव्यवस्था, पीड़ितों की सुरक्षा के
लिए न्यायव्यवस्था बनाते समय बहुत कुछ ध्यान में रखा गया है। ये किसी क्षणिक आवेग
में बने हुए नियम कानून नहीं हैं, जिनका हम खुले आम उपहास
उड़ा सकते हैं। अगर उपरलिखित मसले की ही चर्चा करें तो बलात्कार/शारीरिक शोषण
पीड़िता की निजी जानकारी को गुप्त रखने के पीछे जो सख्त नियम हैं और उस सूचना को
उजागर करने वाले के लिए सख्त दंड का प्रावधान है, वो इसलिए
क्यूंकी उस पीड़िता की स्थिति संवेदनशील होती है। उसकी और उसके परिवार की सुरक्षा
का दायित्व एक बहुत बड़ी और मुश्किल ज़िम्मेदारी होती है। न केवल सामाजिक बल्कि
अराजक तत्वों से उसकी सुरक्षा करना तभी संभव हो सकता है जब उसकी सूचना (उसका चित्र, उसका नाम और अन्य जानकारी) पूरी तरह से गुप्त राखी जाए। इतनी छोटी सी बात
लोगों को समझ नहीं आती। क्या लगता है इस प्रकार उसकी निजी जानकारी उजागर कर के, उसकी स्थिति और संवेदनशील कर के कैसे उसे न्याय प्राप्ति में आप सहायता
प्रदान कर रहे हैं। आप सिर्फ उसकी मुश्किलें बढ़ा रहे हैं। इसके साथ ही किसी भी अपराध को धर्म से जोड़ कर प्रस्तुत करना निहायती घिनौनी प्रक्रिया है। दोषी, उसका अपराध और उसके लिए मिलने वाला दंड समान ही रहेगा चाहे वो किसी भी धर्म से संबंध रखने वाले व्यक्ति ने किया हो।
ये
कोई जटिल गणितीय सूत्र नहीं है जो समझने में दिक्कत हो। पर फिर भी लोग खास तौर से
युवा वर्ग किसी नए ज्ञान को जज़्ब करने के लिए ना तो तैयार है और ना ही खुद अपना
ज्ञान बढ़ाने का इक्षुक। अब आगे बात आती है उन महानुभाव कि जिनहोने मेरा भरपूर
अपमान किया। वो देश की राजधानी से सटे साइबर हब में एक बीपीओ में कार्यरत हैं।
वकीलों के जीवन, कार्य प्रणाली,
परिशर्म इत्यादि से बिलकुल अनिभिज्ञ हैं। पर दोष देना उन्हें अच्छी तरह से आता है।
उनके हिसाब से मेरा जीवन नीरस है, मैंने शायद यूं हीं वकालत
पास कर ली और मैं एक कुंठनीय जीवन व्यतीत करती हूँ। जिसके विपरीत उनका जीवन अत्यंत
ही आनंददायक और जीवंत है। मेरी अँग्रेजी कमजोर है और मेरे जैसे लोगों का कोई खास
भविष्य नहीं होता।
हालांकि
उन्हें ये लेख पढ़ने को नहीं मिलेगा, मिलेगा
भी शायद तो वो ठीक से पढ़ कर समझ ना पाएँ क्यूंकी वो एक गैर हिन्दी भाषी राज्य से हैं।
फिर भी मैं आज अपनी प्रोफेशनल जीवन से संबन्धित कुछ भावनाएं व्यक्त करना चाहती
हूँ।
वकील
एकमात्र ऐसी कौम है जो आवश्यक रूप से दोहरे स्नातक होते हैं। आप डॉक्टर, इंजीनियर, एम.बी.ए. इत्यादि
कुछ भी पढ़ सकते हैं, बन सकते हैं, कोई
भी दिशा चुन सकते हैं। पर वकालत पढ़ के वकील होने के लिए पहले से ही स्नातक होना
आवश्यक होता है। अब तो स्नातक उपाधि पाने के बाद वकालत की डिग्री की तीन साल की
पढ़ाई करने के लिए पहले एक इम्तिहान देना पड़ता है जो आपकी योग्यता को मापता है कि कौन इस पेशे के लायक है और कौन नहीं। उसके बाद जब आप वकालत की डिग्री प्राप्त करते
हैं तो अदालत में वकील के रूप में आधिकारिक पंजीयन पाने के लिए भी एक इम्तिहान से
दो-चार होना पड़ता है। ये इम्तिहान भी आल-इंडिया लेवेल पर होता है और संबन्धित
राज्य बार-काउनसिल्स के अधीन होता है। इस परीक्षा के जरिये नए विधि डिग्री धारकों
की जांच होती है कि वो वकालत के लिए तैयार हैं भी या नहीं। इंटर के बाद 7 साल का अथक
परिश्रम जा के आपको कहीं एक अधिवक्ता या वकील के रूप में कार्य करने का अवसर देता है।
उसके बाद कुछ समय और निवेश करना पड़ता है अदालत की कार्यप्रणाली को समझने और सीखने के
लिए। इस सब के बारे में मैं इस शृंखला के शुरुआती भागों में चर्चा कर चुकी हूँ। अदालत
में एक बार अपनी जगह बना लेने पर हमारा दिन शायद एक 10 रुपये के नोट से शुरू होता हो
पर आप अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते कि दिन के अंत तक या माह के अंत तक हम कितना कमा सकते
है। माना कि आज गूगल कर के आप सारा कानून जान सकते हैं। पर अदालत में किस नियम को कहाँ
और कैसे प्रयोग करना है ये हम जानते और समझते हैं। हम हैं जो साधारण जनता का प्रतिनितिधित्व
न्यायाधीश के सामने दृढ़ हो कर करते हैं। हम केवल आजीविका नहीं कमाते, हम न्याय कमाते हैं, न्याय दिलाते हैं।
हर
व्यक्ति का अपना कार्यक्षेत्र होता है, कोई छोटा
या बड़ा नहीं। कोई बहतर या कोई बद्तर नहीं। माना कि हम 12-14 घंटे ए.सी. दफ्तरों में
कंप्यूटर के सामने आँखें गड़ाए उँगलियाँ नहीं चलाते, पर महनत में
हमारे कोई कमी नहीं है। जब हम अपनी आजीविका के लिए कार्यरत होते हैं तो उससे कोई और
भी फलीभूत हो रहा होता है। रही बात भाषा की तो हम अँग्रेजी या हिन्दी के मोहताज नहीं।
हमें भारत की 3 आधिकारिक भाषाओं में काम करने में आदत होती है। हिन्दी (हिन्दी भाषी
राज्यों के लिए), अँग्रेजी और उर्दू (देवनागरी लिपि में)।