बुधवार, 11 जुलाई 2018

न्याय+आलय


भाग 10

अभी कुछ समय पहले ही फेसबुक पर एक महानुभाव से वाद-विवाद हुआ। मेरे लिए वो अपरिचित थे। पर फेसबुक ऐसा पायदान हैं जहां परिचित-अपरिचित सभी अपने विचारों का आदान प्रदान करते हैं, पूरी स्वकछंदता के साथ। मसला ये था कि मैंने अपनी एक फेसबुक महिला मित्र की टाइमलाइन पर मंदसौर में हुए बलात्कार की पीड़िता से संबन्धित एक पोस्ट देखा जो उसने किसी अजीब हिन्दुत्व पेज से उठा कर साझा किया था। उस पोस्ट पर उस अपराधी की तस्वीर और पीड़िता के नाम के साथ हिन्दू-मुस्लिम विवाद खड़ा करने जैसा कंटैंट था। मेरे अंदर का वकील कहिए या जिम्मेदार नागरिक या बस खुली और सरल सोच के मेरे व्यक्तित्व ने ये फर्ज़ समझा कि मैं उसे ये समझाऊँ (चूंकि वो मेरी मित्र भी है) कि बलात्कार पीड़िता का नाम या जानकारी उजागर करना कानूनन दंडनीय अपराध है और कृपया वो इस दुष्कर्म को धार्मिक रंग देने वालों का समर्थन करते हुए ऐसे पोस्ट को साझा ना करे। बस मैंने ऐसा ही कुछ टिप्पणी में लिख दिया। अब यहाँ बता दूँ कि वो मेरी मित्र कमसेकम मुझसे उम्र में 8 साल तो छोटी होगी ही। उसे मेरी बात पसंद नहीं आयी और कुछ बहस छिड़ी। उस बहस में ये महानुभाव जो उसके फेसबुक मित्र हैं इस बहस में कूद पड़े और मेरी बात को सिरे से नकारा। मैंने फिर अपनी बात को समझाने के लिए ये स्पष्ट किया कि मैं एक अधिवक्ता हूँ, कानून की समझ रखती हूँ और इसीलिए अपना उत्तरदायित्व समझती हूँ कि कमसेकम अपने मित्रों को सही-गलत समझा पाऊँ। पर कोई फायदा नहीं हुआ और छोटी सी बात विवाद में तब्दील हो गयी।

उस विवाद का परिणाम ये निकला कि जब उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं बचा तो उन्होने मेरे वकील होने, मेरी अँग्रेजी की त्रुटियों, मेरे जीवन जिसके बारे में वो कुछ नहीं जानते, इत्यादि पर उन्होने निजी और अभद्र टिप्पणियाँ करनी शुरू कर दीं। काफी देर तक मैंने प्रयास किया कि सदी हुई भाषा में इस अनेपक्षित और अनावश्यक अपमान का सामना दृढ़ता से करूँ और उन्हें जवाब देती रहूँ। पर फिर हार-थक कर मैंने ही अपनी पराजय स्वीकार की और उनसे क्षमा भी मांगी कि आइंदा मैं अपने ज्ञान को उन जैसों के साथ साझा करने से पहले 100 बार सोचूँगी।

माना कि हमारे संविधान ने वाक स्वतन्त्रता का अधिकार हमें दिया है और सोशल मीडिया ने हमें अपनी बात अजनबियों तक भी पहुंचाने का मौका दिया है। पर नियम, कानून का उल्लंघन, और अनावश्यक अपमानजनक टिप्पणियाँ कहाँ तक उचित है। छठी कक्षा में हमारा परिचय नीतिशास्त्र यानी सिविक्स से कराया जाता है। जहां हमें सबसे पहले हमारे मौलिक अधिकार और कर्तव्यों का पाठ पढ़ाया जाता है। इसके लिए वकील होने की ज़रूरत नहीं पड़ती। पर बड़े होते-होते हमें केवल अधिकार ही याद क्यूँ रह जाते हैं, उन कर्तव्यों का क्या जो संविधान में मौजूद हैं और जिन्हें हमारे लिए निभाना आवश्यक है। उन्हीं कर्तव्यों में से एक है भारतीय न्यायव्यवस्था, नियम, कानून का सम्मान और सुरक्षा।

अपराधों के लिए दंडव्यवस्था, पीड़ितों की सुरक्षा के लिए न्यायव्यवस्था बनाते समय बहुत कुछ ध्यान में रखा गया है। ये किसी क्षणिक आवेग में बने हुए नियम कानून नहीं हैं, जिनका हम खुले आम उपहास उड़ा सकते हैं। अगर उपरलिखित मसले की ही चर्चा करें तो बलात्कार/शारीरिक शोषण पीड़िता की निजी जानकारी को गुप्त रखने के पीछे जो सख्त नियम हैं और उस सूचना को उजागर करने वाले के लिए सख्त दंड का प्रावधान है, वो इसलिए क्यूंकी उस पीड़िता की स्थिति संवेदनशील होती है। उसकी और उसके परिवार की सुरक्षा का दायित्व एक बहुत बड़ी और मुश्किल ज़िम्मेदारी होती है। न केवल सामाजिक बल्कि अराजक तत्वों से उसकी सुरक्षा करना तभी संभव हो सकता है जब उसकी सूचना (उसका चित्र, उसका नाम और अन्य जानकारी) पूरी तरह से गुप्त राखी जाए। इतनी छोटी सी बात लोगों को समझ नहीं आती। क्या लगता है इस प्रकार उसकी निजी जानकारी उजागर कर के, उसकी स्थिति और संवेदनशील कर के कैसे उसे न्याय प्राप्ति में आप सहायता प्रदान कर रहे हैं। आप सिर्फ उसकी मुश्किलें बढ़ा रहे हैं। इसके साथ ही किसी भी अपराध को धर्म से जोड़ कर प्रस्तुत करना निहायती घिनौनी प्रक्रिया है। दोषी, उसका अपराध और उसके लिए मिलने वाला दंड समान ही रहेगा चाहे वो किसी भी धर्म से संबंध रखने वाले व्यक्ति ने किया हो।

ये कोई जटिल गणितीय सूत्र नहीं है जो समझने में दिक्कत हो। पर फिर भी लोग खास तौर से युवा वर्ग किसी नए ज्ञान को जज़्ब करने के लिए ना तो तैयार है और ना ही खुद अपना ज्ञान बढ़ाने का इक्षुक। अब आगे बात आती है उन महानुभाव कि जिनहोने मेरा भरपूर अपमान किया। वो देश की राजधानी से सटे साइबर हब में एक बीपीओ में कार्यरत हैं। वकीलों के जीवन, कार्य प्रणाली, परिशर्म इत्यादि से बिलकुल अनिभिज्ञ हैं। पर दोष देना उन्हें अच्छी तरह से आता है। उनके हिसाब से मेरा जीवन नीरस है, मैंने शायद यूं हीं वकालत पास कर ली और मैं एक कुंठनीय जीवन व्यतीत करती हूँ। जिसके विपरीत उनका जीवन अत्यंत ही आनंददायक और जीवंत है। मेरी अँग्रेजी कमजोर है और मेरे जैसे लोगों का कोई खास भविष्य नहीं होता।

हालांकि उन्हें ये लेख पढ़ने को नहीं मिलेगा, मिलेगा भी शायद तो वो ठीक से पढ़ कर समझ ना पाएँ क्यूंकी वो एक गैर हिन्दी भाषी राज्य से हैं। फिर भी मैं आज अपनी प्रोफेशनल जीवन से संबन्धित कुछ भावनाएं व्यक्त करना चाहती हूँ।

वकील एकमात्र ऐसी कौम है जो आवश्यक रूप से दोहरे स्नातक होते हैं। आप डॉक्टर, इंजीनियर, एम.बी.ए. इत्यादि कुछ भी पढ़ सकते हैं, बन सकते हैं, कोई भी दिशा चुन सकते हैं। पर वकालत पढ़ के वकील होने के लिए पहले से ही स्नातक होना आवश्यक होता है। अब तो स्नातक उपाधि पाने के बाद वकालत की डिग्री की तीन साल की पढ़ाई करने के लिए पहले एक इम्तिहान देना पड़ता है जो आपकी योग्यता को मापता है कि कौन इस पेशे के लायक है और कौन नहीं। उसके बाद जब आप वकालत की डिग्री प्राप्त करते हैं तो अदालत में वकील के रूप में आधिकारिक पंजीयन पाने के लिए भी एक इम्तिहान से दो-चार होना पड़ता है। ये इम्तिहान भी आल-इंडिया लेवेल पर होता है और संबन्धित राज्य बार-काउनसिल्स के अधीन होता है। इस परीक्षा के जरिये नए विधि डिग्री धारकों की जांच होती है कि वो वकालत के लिए तैयार हैं भी या नहीं। इंटर के बाद 7 साल का अथक परिश्रम जा के आपको कहीं एक अधिवक्ता या वकील के रूप में कार्य करने का अवसर देता है। उसके बाद कुछ समय और निवेश करना पड़ता है अदालत की कार्यप्रणाली को समझने और सीखने के लिए। इस सब के बारे में मैं इस शृंखला के शुरुआती भागों में चर्चा कर चुकी हूँ। अदालत में एक बार अपनी जगह बना लेने पर हमारा दिन शायद एक 10 रुपये के नोट से शुरू होता हो पर आप अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते कि दिन के अंत तक या माह के अंत तक हम कितना कमा सकते है। माना कि आज गूगल कर के आप सारा कानून जान सकते हैं। पर अदालत में किस नियम को कहाँ और कैसे प्रयोग करना है ये हम जानते और समझते हैं। हम हैं जो साधारण जनता का प्रतिनितिधित्व न्यायाधीश के सामने दृढ़ हो कर करते हैं। हम केवल आजीविका नहीं कमाते, हम न्याय कमाते हैं, न्याय दिलाते हैं।

हर व्यक्ति का अपना कार्यक्षेत्र होता है, कोई छोटा या बड़ा नहीं। कोई बहतर या कोई बद्तर नहीं। माना कि हम 12-14 घंटे ए.सी. दफ्तरों में कंप्यूटर के सामने आँखें गड़ाए उँगलियाँ नहीं चलाते, पर महनत में हमारे कोई कमी नहीं है। जब हम अपनी आजीविका के लिए कार्यरत होते हैं तो उससे कोई और भी फलीभूत हो रहा होता है। रही बात भाषा की तो हम अँग्रेजी या हिन्दी के मोहताज नहीं। हमें भारत की 3 आधिकारिक भाषाओं में काम करने में आदत होती है। हिन्दी (हिन्दी भाषी राज्यों के लिए), अँग्रेजी और उर्दू (देवनागरी लिपि में)।          


शुक्रवार, 6 जुलाई 2018

न्याय+आलय


भाग 9

................जैसा कि मैंने पिछले भाग में चर्चा की, भारतीय न्यायव्यवस्था में एक बड़ी लूप होल है बनाए गए कानून का दुरुपयोग। जी हाँ, कानून बनाए गए लोगो के हितों और उनकी सुरक्षा के लिए। पर उनका सही उपयोग जितना हो पाता हो पर दुष्प्रयोग बहुत होता है और ये एक बहुत बड़ा कारण है पीड़ितों को न्याय प्राप्ति में देर लगती है।

भारत में सबसे ज़्यादा दुष्प्रयोग होने वाले क़ानूनों में मुख्य है- स्त्रियॉं के हितों और सुरक्षा के लिए बनाए गए कानून, जिनमें दहेज, घरेलू हिंसा, बलात्कार, और शारीरिक व मानसिक शोषण। सदा सर्वदा से ही भारत में स्त्रियों की स्थिति अधर में रही है। पहले बेटियों को पिता की संपत्ति में अधिकार प्राप्त नहीं था, तो शादी के बाद उन्हें घरेलू हिंसा और दहेज प्रथा के दुराचार से गुजरना पड़ता था (आज भी गुजरना पड़ता है), बलात्कार और शारीरिक शोषण के बारे में तो लगभग हर रोज़ 6-7 मामले ऐसे होते हैं जो सामने आते हैं, छुपे हुए कितने होंगे इसका तो हमें कोई अंदाज़ा ही नहीं। मात्र घर ही नहीं नौकरी पेशा महिलाओं का अनेकों शोषणों से सामना होता ही रहता है। इसी सब के अंतर्गत संविधान में महिलाओं की सुरक्षा और हितों को ध्यान में रखते हुए उनके लिए कानून बनाए गए। जिससे कि उनके जीवन की कठिनाइयों में कुछ हद तक कमी आ सके। कमी आई भी है, शिक्षित और जागरूक होने के साथ-साथ ही समाज में परिवर्तन भी आए हैं। लोगों में कुछ हद तक न्यायपालिका का डर भी है। पर ऐसा नहीं है कि अपराध घट गए हों। हाँ पीड़ितों को न्याय अवश्य मिल जाता है। देर-सवेर ही सही। दहेज प्रथा और घरेलू हिंसा, बलात्कार इत्यादि को ले के सख्त दंड प्रक्रिया है।

ये दंड प्रक्रिया जहां तक एक वरदान है वहीं एक बहुत बड़ा श्राप तब सिद्ध होती है जब महिलाएं इसका दुरुपयोग करती हैं, चाहे मर्ज़ी से या परिस्थितियों से विवश हो कर। कई मामले ऐसे देखे गए हैं जहां प्रेम शादी तक नहीं पहुँच पाता और प्रेमिका रुष्ट हो कर प्रतिकार चाहती है और अपने प्रेमी के विरुद्ध शारीरिक शोषण या बलात्कार का मामला दर्ज करा देती है। कई बार ऐसा हुआ है जहां लड़का-लड़की अपनी इक्षा से घर से भाग जाते हैं और पकड़े जाने पर लड़की को इक्षा या विवशता में लड़के के विरुद्ध बयान देना पड़ता है, और लड़के पर अपहरण और शोषण का मुक़द्दमा दायर होता है। दोनों ही मामलों में लड़के का जीवन बरबादी की ओर अग्रसर हो जाता है। सालों साल लड़की और लड़के का परिवार पुलिस, और अदालत के चक्कर काटते हुए निकालता है। जिसका अंतिम निर्णय या तो समझौते पर आ कर रुकता है या लड़के को सज़ा हो जाती है। दूसरे मामले में गौर करें तो यदि लड़की नाबालिग है तो समझिए उस लड़के के जीवन का एक अच्छा समय जेल में कटेगा। मामला दोनों में से कोई हो दोनों परिवारों का, पुलिस का, अदालत का, वकील का, सभी का समय नष्ट होगा।

अगर घरेलू हिंसा और दहेज विरोधी कानून के संबंध में बात करें तो जहां दहेज के लिए घर से निकाली हुई, प्रताड़ित की गयी महिलाएं हैं वहीं जला कर, या किसी और प्रकार से मार दी गईं महिलाओं के मामले हमेशा से सामने आते रहे हैं। ये अपराध इतने जघन्य हैं कि इनकी गंभीरता को ध्यान में रखते हुए ये स्त्री प्रधान न्यायव्यवस्था का एक प्रतिरूप माने जा सकते हैं। इनका निर्माण कुछ इस प्रकार किया गया है कि इसमें पीड़िता की शिकायत को प्राथमिकता पे रख कर आगे की प्रक्रिया या जांच को निर्धारित किया गया है। हालात बदले हैं, समाज भी बदला है, इसी प्रकार सोच भी बदली है। अक्सर देखने में आ रहा है कि अनावश्यक कारणों के चलते स्त्रियाँ अब शादी के तुरंत बाद ही अपना ससुराल स्वयं छोड़ देती हैं और फिर अपने पती और ससुराल पक्ष पर दहेज और घरेलू हिंसा का दावा दायर कर देती है। उनका सीधा सा मकसद होता है शादी से विलग होना पर अपने पती की संपत्ति में हिस्सा प्राप्त कर के। पहले ऐसे मामलों में ससुराल पक्ष की सीधी गिरफ्तारी होती थी पर इसका दुरुपयोग देखते हुए इस नियम में थोड़ी ढील दी गयी है और अब मामला दर्ज कर लिया जाता है और यदि हत्या और हत्या का प्रयास ना हुआ हो तो गिरफ्तारी नहीं की जाती। इन झूठे मामलों का भी निष्कर्ष आखिरकार समझौते पर ही निकलता है। पर इस सब में कुछ महीने या साल निकल जाते हैं और अदालत और पुलिस का बहुत सारा समय व्यर्थ हो जाता है।

मैं ये बिलकुल नहीं कह रही हूँ कि सभी महिलाएं झूठी हैं या सभी मामले झूठे हैं। मैं ये कह रही हूँ कि ऐसे झूठे मामलो की तादात बढ़ती जा रही है। जिसका सीधा प्रभाव असली पीड़ितों को मिलने वाले न्याय पर पड़ता है। इसी संदर्भ में जब सन 2012 में POCSO Act (Prevention of Children Against Sexual Offences) को न्यायव्यवस्था में स्थान मिला तो ये भी नाबालिग बच्चों पर हो रहे शोषण के खिलाफ एक वरदान की तरह सिद्ध हुआ। इस एक्ट के अंतर्गत नवजात शिशु से ले के 17 साल तक के नाबालिग लड़के और लड़कियों पर होने वाले शारीरिक शोषण के विरुद्ध सख्त दंड प्रक्रिया का विधान है। पर समस्या वही है, दुरुपयोग। और जहां तक मैंने देखा है इस एक्ट का दुरुपयोग करने वाले गाँव-देहात के लोग हैं।

अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए, अपनी दुश्मनी किसी से निभाने के लिए अपनी स्त्रियों या बच्चों का ऐसा उपयोग मत कीजिये। कानून आपकी सुरक्षा के लिए है ना कि नाजायज स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए। कानून बनाया गया पीड़ितों के कष्ट हरने के लिए, किसी और को पीड़ित बनाने के लिए नहीं। अगली बार जब आप न्यायव्यवस्था, न्यायपालिका, अदालत, पुलिस और वकील पर न्याय मिलने में देरी या आलस्य का दोष लगाएँ और उंगली उठाएँ तो इस बात पर गौर ज़रूर करें कि आपकी बाकी 3 उँगलियाँ और 1 अंगूठा कहीं आपकी ही ओर तो नहीं घूम गए। जब भी कोई फर्जी मामला अदालत में दायर करने जाएँ तो एक बार अपनी आत्मा को झिंझोड़ें ज़रूर और सोचें कि आपके कारण किस पीड़ित को न्याय मिलने में देरी हो रही है और उसकी अवस्था आपके मुक़ाबले क्या है?

न्यायपालिका अपने कार्य में सक्षम है, दोष रहित है और समर्पित है। जब हम अपने अधिकारों को जानते और समझते हैं तो अब आवश्यकता है कि अपने दायित्वों को भी समझें और स्वीकारें। न्यायपालिका हमारे देश का एक आवश्यक और मजबूत स्तम्भ है, और जब ये स्तम्भ हमारे देश की इमारत को साधे हुए है तो हमारा भी कर्तव्य बनता है कि इस स्तम्भ की मज़बूती को कमजोर ना पड़ने दें और इसका दुरुपयोग ना करते हुए अपना सच्चा योगदान दें।