गुरुवार, 31 मई 2018

न्याय+आलय


भाग-3

उस दिन एक बुज़ुर्ग वकील साहब आकर सीट पे बैठे और बतियाने लगे। “बेटा नयी हो लगता, कबसे आना शुरू किया, कहाँ से आती हो, कहाँ से लॉ किया है? अजी साहब धाराप्रवाह प्रश्न पे प्रश्न। समझ नहीं आया कि सिस्टेमैटीकली जवाब दें या कहीं से भी। कुछ बोल पाते उससे पहले ही वो फिर बोल पड़े “अरे वकील साहब एक ज़माना था जब वकीलों का बड़ा रुतबा हुआ करता था, लोग बड़ी इज्ज़त दिया करते थे, 5-5 किलो देसी घी क्लाइंट ऐसे ही बिना मांगे घर पहुँचा जाते थे। अब तो कोई चाय भी नहीं पिलाता उल्टा गुटके के पाउच में निपटाने का प्रयास करता हैं। अब बताओ जो गुटका न खाता हो उसका तो वो भी गया”। सुन के मुझे भी लगा कि गुटका तो मैं भी नहीं खाती फिर याद आया की मुझे तो बाहर चाय भी पीना पसंद नहीं। चलो फिर कोई बात नहीं वैसे भी मुझे मेरे क्लाइंट से ऐसी उमीदें नहीं है। पर इस सब में उनका मुझे वकील साहब कह के संबोधित करना बड़ा अच्छा लगा। ये अच्छा है यहाँ आप लड़का हों या लड़की, कम उम्र हो या उम्र दराज़ सब वकील साहब ही होते हैं। चलो आपसी इज्ज़त तो है!

“और बताइए वकील साहब बिटिया ये कैसी है सीखने में” इस बार उनका सवाल मेरे सिनिअर से था। हाँ जी! कचहरी आके पहले किसी सिनिअर की छत्र छाया में शरण लेनी पड़ती है। बिना कमाई उसका सारा काम संभालना पड़ता है। फिर ये आप पर निर्भर है कि कितने दिन लगते हैं सारी मठेती सीखने समझने में, क्यूंकि वकालत तो पढ़ के ही आये हैं, तो सीखने के लिए बस जुगाड़ टेक्नोलॉजी है और मठेत कैसे बना जाये ये है। “सब सिखा दीजियेगा बिटिया को अब यही भविष्य हैं हमारा, इन्हें ही सब संभालना है आगे, वैसे भी लड़कियां ही आजकल अच्छी निकल रहीं, सब सीख लेती हैं जल्दी-जल्दी, लड़के तो साले निकम्मे ही निकल रहे” उनका दर्द छलक पड़ा। शायद वो भी अपने बेटे से त्रस्त होंगे। खैर इतने सवाल पूछ के, एक का भी जवाब लिए बिना और अपनी सारी बाते कह के बुज़ुर्गवार आगे बढ़ गये दूसरी सीट की तरफ। मै और मेरे सिनिअर बस मूक दर्शक बने बैठे रहे और देखते रहे।

पहला अनुभव था ये, फिर अक्सर या कहें रोज़ ही ऐसा कुछ घटता रहा। वकील तो वकील मुव्वाक्किल भी बड़े सवाल करते हैं। गूगल का ज़माना है भाई सारी विधि पढ़ के आते हैं फिर टेस्ट करते हैं कि वकील हमारा सब जानता है कि नहीं। मजाल है आप बहलाने का प्रयास करें आज का मुवक्किल सब जनता है। तुरंत पकड़ लेगा, और तो और उसकी जानकारी से कम या ज़्यादा धाराओं का ज्ञान आपने उसे कराया तो भी बिगड़ जाएगा क्यूंकी गूगल ने उसे विस्तार में कुछ नहीं समझाया है उसे वही धारा या नियम पता है जो उसने खोजा और गूगल ने उसे बताया। अब गूगल बाबा भी तो कोई खाली नहीं बैठे हैं जो खामखा ही सारी जानकारी उड़ेलते रहें जो उनसे पूछी ही नहीं गयी। ऐसी स्तिथियों में जब कोई अधिवक्ता फँसता है तो फिर वो अपने अस्त्र चलाना शुरू करता है। आखिर उसके ज्ञान के आगे तो गूगल्या के आए हुए मुवक्किल का अधूरा ज्ञान कहाँ तक टिक पाएगा। उसे विस्तार से मुद्दे की गहराई में ले जा कर समझाना पड़ता है, धारा के अंतर्गत उपधारा, उसके अंतर्गत नियम, उसके अंतर्गत उपनियम और उसके भी अंतर्गत जो-जो आता है सब समझाना पड़ता है वो भी ऐसे कि या तो वो समझ जाए या फिर इतना समझ जाए कि कुछ नहीं समझ सकता और कट ले।

पर इतना गहराई में कुछ एक ही अधिवक्ता जाते हैं क्यूंकी अक्सर हम बहुत व्यस्त होते हैं, और जब इतना समय नहीं होता तो फिर हम अपना ब्रह्मास्त्र चलाते हैं- “भक्क साले! आया बड़ा वकील बनेगा......जा फिर लड़ ले अपना केस खुद ही, ले जा ये कागज़ सारे.....दिखाई मत दियो दुबारा....” यकीन मानिए ये वार कभी खाली नहीं जाता। आखिर ब्रह्मास्त्र है खाली कैसे जा सकता है। मुवक्किल दिमाग का दही करना बंद करते हुए भाग जाएगा, हो सकता है एक-दो गाली बकता हुए जाए पर चला जाएगा।

अरे! नहीं-नहीं परमानेंट नहीं गया। अगली तारीख पे लौटना तय है। वकील बदलना कोई आसान प्रक्रिया नहीं। वैसे भी अगली तारीख पे न वकील साहब पुरानी बात को ले कर गुर्राएंगे और मुवक्किल तो वैसे भी अब ज्ञान नहीं बांछेगा।

<amp-auto-ads type="adsense"
              data-ad-client="ca-pub-3164899586578096">
</amp-auto-ads>



मंगलवार, 29 मई 2018

न्याय+आलय


भाग-2

... जी हाँ वकीलों की भी एक कौम होती है। काला कोट बनवा लिया है अब तक, कुछ दिन गुज़ार लिए है मैंने मेरी कचहरी में। बस कुछ ही दिन काफी रहे सबसे ज़रूरी बात समझने में कि हमारी भी एक कौम होती है। वैसे ही जैसे सबकी होती है। यहाँ कौम का मतलब किसी धर्म या जाति के लोगों से नहीं है बिलकुल। कौम जैसे डाक्टरों की, इंजीनियरों की, सफाई कर्मियों वगैहरा-वगैहरा की. पर हम बाकियों जैसे बिलकुल नहीं हैं। हो भी नहीं सकते क्यूंकि “हम तो हम है बाकी सब पानी कम हैं”। वैसे हम सबसे इंटेलेक्चुअल कम्युनिटी को बिलोंग करते हैं. क्यूंकि हम कम्पलसरिली डबल ग्रेजुएट होते हैं। हाँ! और किसी को कुछ बनने के लिए दो बार ग्रेजुएशन नहीं करनी पड़ती. एक वकील ही होता है जिसे वकालत पढने के लिए भी पहले से ग्रेजुएट होना पड़ता है। खैर बाकी सब अपना-अपना काम करते हैं। हम अपना काम कम करते हैं उसके अलावा और बहुत कुछ करते हैं। जैसे मठेती, बकलोली, दलाली, चमचागिरी, दबंगई, इत्यादि-इत्यादि हमारी मुख्य विशेषताएं होती हैं। वकालत तो हमारा साइड प्रोफेशन है।

हाँ! तो बात हो रही थी कौम की। कैसे बताऊँ? उधाराणार्थ जैसे हमारे शहर में बन्दर बहुत हैं। टोली की टोली घूमा करती है पुरे शहर में। अक्सर छतों पर जमावड़ा होता है इनका. ये मुख्यतः पानी की टंकी के ढक्कन तोड़ कर उनमे डुबकी लगाने, पेड़-पौधे उखाड़ के फेंकने, कपड़े फाड़ने, इत्यादि विनाशकारी मकसदों से ही आते हैं। फिर इन्हें डंडों, गुलेल, एयर गन, झाड़ू आदि या जो भी संसाधन मिले उसकी सहायता से खदेड़ा जाता है। पर सिर्फ खदेड़ सकते हैं चोट नहीं मार सकते। मारना तो किसी भी जानवर को नहीं चाहिए पर कहीं धोके में डराते-डराते एयर गन चल गयी या गुलेल लग गयी, या डंडा जड़ गया और एक भी बन्दर चीख गया तो समझ लीजिये आपका आखिरी समय निकट है। उस एक बन्दर की चीख पर सैकड़ों, अनेकों अन्य आकर वहीं इकठ्ठा हो जाएँगे कुछ ही पलों में। इस दृश्य की कल्पना भी न कीजिये। कुछ कल्पना करना है तो ये कीजिये की आप वहां न फंसे हों और दौड़ कर किसी दरवाज़े के पीछे जा छुपे हों। बस बिलकुल ऐसे ही होतें हैं हम अधिवक्तागण भी.

अरे! तारीफ कर रही हूँ। हम भी बहुत सारे हैं और तो और कचहरी के अन्दर सब एक जैसे ही दिखते हैं। एका इतना कि मजाल है कोई गलत बात तो कर जाये, हमसे बड़ा दबंग जो बन के दिखाता है या हमे वकालत पढाता है तो बस एक की आवाज़ पर सारे इकट्ठे हो जाते हैं। फिर चाहे वो क्लाइंट हो या कोई पुलिस वाला, मठेत हो या दबंग, सही हो या गलत, नेता हो अभिनेता हो, हमारे लिए बस टारगेट है (बुजुर्ग, बच्चों और औरतों को हम माफ़ कर देते हैं), और मजेदार बात ये है कि जैसे-जैसे घटना की जानकारी मिलती रहती है वैसे वैसे हम दूर-दूर से आके घटनास्थल पे इकठ्ठा होते रहते है। वो क्या है न कचहरी बहुत बड़ी होती है, टाइम लगता है एक सीट से दूसरी सीट तक पहुँचने में...

पर ऐसा बिलकुल नहीं है कि हममे सहृदयता या सहयोग इत्यादि गुणों की कोई कमी है। आफत में पड़ने वाले अधिवक्ताओं की भी हम सहायता कूद के करते हैं। बुरे समय या मृत्यु जैसी आपदाओं में भी हम अपने अधिवक्ताओं और उनके परिवारों का संबल बनने का पूर्ण प्रयास करते हैं। बेटियों के विवाह में अधिवक्ता पिता का दूसरे अधिवक्तागण बिना मांगे, बिना कहे कार्यभार सँभालते हैं। यहाँ स्पष्ट करूँ कि एक दूसरे के साथ खड़े होने के लिए या मदद करने के लिए कभी हमारी जाति बीच में नहीं आती। हालाँकि “जाति कभी नहीं जाती” पर ये ही हमारी कौम की बड़ी विशेषता है कि “अधिवक्ता का कोई धर्म विशेष नहीं होता वो मात्र अधिवक्ता है”।

“अरे बिटिया ज़रा ये दरख्वास्त लगा आना सी.जे.ऍम. कोर्ट में” बगल वाले बुज़ुर्ग वकील साहब अक्सर हुक्म फरमा देते हैं, उन्हें दमा है बुज़ुर्ग भी हैं इसलिए अपने छोटे मोटे काम मुझसे करवा लेते हैं। क्या करूँ मना भी नहीं किया जाता। हालाँकि ये कोई बड़ी बात नहीं पर दुनिया ऐसी है कि “ऊँगली पकड़ाओ तो पोंचा पकड़ती है”। एक-दो बार ख़ुशी से कर दो उनका काम तो तीसरी बार से उनकी आदत बन जाता है और फिर अपना काम छोड़ उनका पहले करना पड़ता है।

ये भी एक प्रकार का शोषण है। अब शोषण तो हर जगह होता है। बस रूप अनेक हैं। पर भई हम सहयोगी प्रवत्ति के हैं तो......

सोमवार, 28 मई 2018

न्याय + आलय

भाग-1

उस दिन सोमवार था शायद, वो मेरा पहला दिन था। अक्टूबर का महीना, न हल्की न तेज़ धूप पर गर्मी थी, और मैं अपने सफ़ेद सलवार सूट पे दुपट्टे की प्लेटें बना किसी स्कूली बच्ची की तरह कचहरी पहुंची थी। अभी काला कोट नहीं बनवाया था। वक़ालत पढ़ने के बाद यहीं तो आना होता है। बाहर से देखने पे ये जगह बड़ी शानदार और रुआबदार होती है। अंदर घुसते ही याद आ जाती है पुरानी कहावत- "जनती लुगाई और बनती मिठाई कभौं न देखो"। जहाँ से नज़र दौड़ाओ और जहाँ तक दौड़ाओ बस चार बम्बूओं पर सधी टीन की छतें और उनके नीचे बैठे काले कोट। हाँ दूर से बस काले कोट ही नज़र आते हैं। यूँ लगता है मानो चलते फिरते काले कोटों का शहर है जैसे।

मन में बड़ी कल्पनायें थी कोर्ट रूम की। आर्डर-आर्डर करते लकड़ी के एक छोटे से गोले पे बड़ा सा हथोड़ा ठोकते, ऊँची सी कुर्सी, सिंघासन जैसे डाइस के पीछे बैठे जज साहब मिलेंगें। सामने होंगें लम्बे काले चमकदार गाउन पहने दो इम्प्रेस्सिव से वकील। उनके अगल बगल बने दो लकड़ी के कटघरे। पीछे लगी कुर्सियों पर आम जनता की भीड़. यही सब तो देखते आये हैं हम अब तक फिल्मो में। कोर्ट रूम का कुछ ऐसा ही चित्र अंकित था मेरे मन में भी और शायद सबके मन में होता होगा। सिर्फ तब-तक, जब-तक खुद उस जगह के करीब से दर्शन न किये हों।

बस तो हमने भी वकालत पढ़ ली कि साहब बड़ा मज़ा आएगा न्याय की देवी के आँखों पर पट्टी, एक हाथ में तराजू, और दूसरे में तलवार क्यों है पता चलेगा। असल में करीब से देखने पे ये देवी कैसी लगती है बड़ी जिज्ञासा थी। ये काले कोट के पीछे का राज़, ये सफ़ेद वर्दी की वजह और इन सब में सबसे आकर्षक जज साहब का वो हथोड़ा। पर किसी ने सही कहा है दूर के ढोल सुहावने होते हैं. ये सब जिज्ञासाएं गूगल कर दूर कर लेते तो ठीक रहता. पर नहीं कूद पड़े, जाने क्यों काला सफ़ेद खींच लाया हमे यहाँ।

खैर अब आये तो आये तब जाना कि फ़िल्में सचमुच बहुत धोका देती हैं. हाय राम! ऐसा तो कुछ भी नहीं है यहाँ। हाई कोर्ट में होता हो शायद. मेरी कचहरी (जिला न्यायालय) में तो किसी भी कोर्ट रूम में कटघरे ही नहीं है, ऐसे ही वकील साहब मुलजिम को अपने बगल में खड़ा कर लेते है और कोई गीता/कुरान/बाइबिल भी नहीं मंगाई जाती कसम उठाने को। वकील साहब या कभी अर्दली ही कह देता है मुलजिम से “चलो कसम खाओ जो कहोगे सच कहोगे”। अरे! ये भी कोई बात हुई कुछ न सही अम्मा की ही कसम खिलवा दो! (मेरे मन में ये ख़्याल हर बार आता है) और जज साहब यकीन कर लेते है की ये जो अब बयान देगा वो सच ही होंगे, और तो और वो हथौड़ा भी मिसिंग है।

वकालत की असली सच्चाई कुछ फुट के टीन शेड के नीचे दो कुर्सी, एक बेंच और एक मेज़ डाल के बैठने और लू, बरसात और ठण्डी कड़कड़ाने वाली हवाएं झेल के समझ आई। 10-10 रुपये के लिए मुवक्किलों से कितनी झिक-झिक करनी पड़ती है. उसपे भी सुनना पड़ता है “वकील साहब आप काम नहीं करते हमारा बस मेहनताना मांगते हैं”। यही मुवक्किल पेशकार और क्लर्क को बड़ी ख़ुशी-खुशी ऊपर की या कहूँ मेज़ के नीचे की कमाई करा आते है।

न्यायलय यानी न्याय का घर जहाँ लोग न्याय की अपेक्षा से आते हैं यहाँ न्याय होता होगा कभी, अब अन्याय ज्यादा होता है। सब के साथ चाहे वकील हो या मुव्व्क्किल। न्याय की देवी की आँखों पर पट्टी इसलिए है कि कुछ भी देखो मत, जो भी घट रहा है, सही या गलत, टेबल के ऊपर या टेबल के नीचे। हाथ में तराजू इसलिए है कि जिसका पलड़ा भारी हो उसकी तरफ झुक जाओ, और तलवार इसलिए कि पहले कमज़ोर और पीड़ित का पत्ता काटो। काला कोट हम इसलिए पहनते हैं कि थूक भी जाओ हम पर तो दिखे ना, और सफ़ेद वर्दी इसलिए कि हम दिखावा कर सके कि कितने शांतिप्रिय और सात्विक है।

ये सब मेरे निजी विचार और अनुभव हैं। क्यूंकि मेरी कचहरी कुछ ऐसी ही है। यहाँ अब पीड़ित कम और पीड़ा देने वाले ज्यादा आते है न्याय मांगने कि हमें पीड़ा देने का अधिकार दो या हमने पीड़ा दी तो कुछ गलत नही किया. 100 में से 10 होते हैं सच्चे न्याय के हक़दार पर अफ़सोस बाकि 90 उनका समय नष्ट करते हैं।
खैर कुछ भी हो मेरी कचहरी में रौनक हमेशा रहती है चाहे किसी के पास काम हो या नहीं, चाय-पकौड़ी खाने ही चले आते हैं सब और अगर कुछ वकील ज्यादा व्यस्त लग रहे हैं, कुछ अन्य बेकारों को तो, झट से हड़ताल का कोई मुद्दा भी खड़ा कर लिया जाता है। “लो भाई फलाने कारण से आज सारे अधिवक्ता न्यायिक कार्य से विरत रहेंगे”, “मौजा ही मौजा।” “कुछ भी हो पर एका बहुत है वकीलों की कौम में” हाँ! ऐसे ही बात करते है सब. हमारी भी एक अलग कौम होती है..............................


                                                                                                   <amp-auto-ads type="adsense"
              data-ad-client="ca-pub-3164899586578096"> 
</amp-auto-ads>